कुमाउनी लेख : कुमाउनी लोक साहित्य में ऋतुगीत


डॉ. रमेश पांडे ‘राजन’
अपर गली, जाखनदेवी, अल्मोड़ा
मो.-9412044015

 कुमाऊँ शब्द अल्मोड़ा, बागेश्वर, पिथौरागढ़, चम्पावत, नैनीताल   और ऊधमसिंहनगर- यो छै जिल्लोंक लिजी प्रयोग करी जां्छ। कुमाऊँ क एक नाम कूर्मांचल लै छ। यो किसमाक अनेक अंचल/खंड हमार देश में छन। कुछ भौगोलिक परिस्थिति वश, कुछ सांस्कृतिक, ऐतिहासिक और भिन्न रीति-रिवाजों कारण यो अलग-अलग अंचलन में, क्षेत्रन में एक विशेष किसमक आंचलिक/क्षेत्रीय साहित्य निर्मित हुंछ, जै हुं ‘लोक साहित्य’ कई जांछ। अलग- अलग क्षेत्रोंक लोक साहित्यक पूर्व में उ स्थान क नाम जोड़ि बेर अंतर स्पष्ट है जांछ। जस अवधी लोक साहित्य, ब्रज लोक साहित्य, बुंदेलखंडी लोक साहित्य, गढ़वाली लोक साहित्य, कुमाउनी लोक साहित्य आदि। मूल रूप में यो सबै साहित्य एक्कै भै, लेकिन भिन्न-भिन्न रीति- रिवाज, परंपरा, खान-पान, रहन-सहन, भौगोलिक सीमा, यो सब कारणनल लोक साहित्य में आपणि-आपणि अंचलकि झलक मिलेंछ।


फोटो: शोसल मीडिया बै साभार 


लोक साहित्य क क्षेत्र में लोक गीतन कैं सबै जा्ग प्रमुखता दिई जैं। उसिक लोक का्थ, लोक  गाथा, कहावत, मुहावरे, नृत्य गीत, संस्कार गीत सबै लोक साहित्य में ऐ जानी। लेकिन लोक गीतों क आपण विशेष महत्व छ।
हमा्र कुमाऊँ क लोक गीत हमार माटिक गीत छन। यो हमार धरतीक गीत छन। हमार कूर्मांचल में जन-जीवन कि प्रसन्नता में मुस्कान बिखेरणी वा्ल, दुख-दर्द कि कहानि सुणूनी वा्ल यई लोकगीत छन। कुमाउनी लोक साहित्य में खूब लोकगीत मिलि जानी। यई लोकगीत हमार कुमाउनी लोक साहित्य कि अमूल्य थाती छन। हमार लोक गीतन में हरी-भरी प्रकृति, पेड़-पौंध, पशु-पक्षी, चाड़- पिटङ, ना्नतिन, मैंसना्क आपसी संबंध, बलि, पुज-पाति, धिनालि-पाणि सबनक भौतै भल और मनोहारी वर्णन छु। लेकिन यो सब गीतन में बसंताक गीत सबन है जादा समृ( और महत्वपूर्ण छन। हमार कुमाउनी लोक साहित्य में यो गीतन कैं ‘ऋतुरैण’ कई जां। संस्कृत शब्द ‘ऋतु रमण’ नामाक आधार पर यो ‘ऋतुरैण’, शब्द बणी हुई छ। हमार यां द्वि-द्वि महैण कि एक ऋतु मानी जैं। ‘रमण’ क अर्थ भै-ऋतु विशेष में रम बेर गीत गैण और आनंद मनूण। यो आनंद बसंत )तुक गीतों कैं गै बेर मिल सकँछ।

बसंत ऋतुक ऊण पर चैत महैणकि सङरांत बै यो ऋतु गीत गाई जानी। गायक बैशाख आखिर तक यो गीतन कैं गाते रूनी। बसंताक यो गीतनकि खासियत पैंली बै यो छी कि यो गीतन में ढोलि, दास, मिरासी आदि ऋतुओं कि का्थ कैं गै-गै बेर गौं में ‘चैतोल’ यानी चैत महैण क हिस्स मांगछी। यो गीतनकि परंपरा यो छी कि मुख्य गायक ढोलक पर थाप दि बेर का्थ आरंभ करछी और दगाड़ में सबै स्यैणि-बैग भाग लगूंछी। हमार कूर्मांचलीय लोक साहित्य में ऋतु गीतनकि परंपरा मिरासिन बै आरंभ भैछ। ऋतु गीतन कि मूल गायन शैली आज लै उनार कंठ में विराजमान छ। बाद में ढोलि और दासनल यो परंपरा कें अघिल कै बढ़ा।
‘ऋतुरैण’ में केवल बसंत ऋतुक गीत उपलब्ध हुनी। हमार कूर्मांचल में पैंली बै यो गीतों क साथ-साथै नाच लै हुंछी। किंतु आ्ब गायन परंपराक अभाव में यो गीत लै कम उपलब्ध हुनी।
‘ऋतुरैण’ प्रबंध गीत छन। यो गीतन में गोरीधना कि का्थ चलैंछ। यो गीत भौते दुखांत और करूण स्वर कैं ल्हि बेर उदासि जसि लगै दिछी। जब गायक गैंछ तबै यो गीतनकि प्रत्यक्ष अनुभूति है सकेंछ। लिपिबद्ध गीत में उतुक आनंद नि ऊन।
बसंताक ऊण में सारै कुमाऊँ प्रदेश क प्राकृतिक सौंदर्य निखर जांछ। शीतकाल लै खतम है जांछ। बुड़-बाड़ि, नानतिन, ज्वान-जवान सबै मैंस खुशि है जानी। बसंताक यो किसम-किसमाक गीतन में जो भावना छ, उ छ-हर्ष, उमंग और उत्साहकि भावना। यो दिन, यानी बंसत ऋतुक दिन सबै मैंसन कैं बड़ भल लागनी। यो प्रसंग में एक गीत छ-
फागुन ल्है गोछ आ्ब लागी गोछ चैत
चेलि-बेटि सब आ्ब जाण चानी मैत।
किल्मोड़ी फुलण भै गे फुलि गे हिसोई।
के भली मानीछ बलि चैत की भिटोई
स्यैणियों कैं लागनी यो बड़ा भला दिना।
खुशि हई जानी तब सब नानतिना।
रजाई समय न्है गो चद्दर ओढूंला।
नानतिना खुशि है गई रौनू आ्ब नाङड़ा।

नानतिन, बुड़ि-बाड़ि सबै ठंडाक दिनन कैं भुलि जानी और बसंताक ऊण पर सब खुशि है जानी। लोक गायक कैं ले आपुण चारों तरफ एक सुक्यालो संसार देखींछ और उ गैण ला्ग जांछ।
मोटिया लुकुड़ि नि चैन है जांछी रितु
मसिणी लुकुड़ि गातनु भिजली रितु।
को मैत बोलाला, को देश ठेलाला रितु।
छाजा में भै बेरा, र्वै धाता लगूंछी रितु।
‘ऋतुरैण’ प्रबंध गीतन में गाई जानेर गोरी धना कि का्थ लै गायक कैं याद ऐ जांछ। फिर यो गीतों क स्वर वीक कंठ बै फुटण लागि जानी-
गोरीधना, गैला-मैला पातला )तु,
गोरीधना, नेवली झुरेंछी ला )तु
गोरीधना, झुरमुरा न्यौलाला )तु
गोरीधना, म्यारा मैतों का देसा )तु।
बसंत ऋतु जो बखत ऊंछ, वी बखत यानी कि उ दिनन में ‘ऐ गे बसंत बहार फागुन महैणा...’ कै बेर ढोलक, मजिर, मसकबीन आदि बा्ज-घाजनाक साथ गीत गै बेर यो ऋतुक स्वागत करी जांछ।
बसंत ऋतु वर्णन में जो गीत गीतकारनल लेखि राखी या गै राखी, यो सब गीतन कि आधारभूमि एक ओर बसंत ऋतुक संुदर प्राकृतिक वातावरण छ तो दुसर तरफ करूण और उदासि लगूणी वा्ल गीत लै छन।
बसंत ऋतु आपुण नई वेश-भूषा में सजि-धजि बेर, बण-ठण बेर ऊंछि। वीकि सुंदर वेश-भूषा कैं देखि बेर गायक फिर गैण ला्ग जांछ-
पिङला खेत हरिया डाना,
कांई नि देखीना सुकिया काना।
रंग-रंगीला फूल फुलि र्यान
ग्यूं, जौं खेत हरिया है र्यान।
यो बसंत ऋतु में दिन में सूरज सुशोभित है रूंछ और रात में चन्द्रमा। भूमि- देवता यानी भूमिया देव लै आ्पण सुंदर रूप में प्रकट है जानी। एक परंपरा प्राचीन समय बै चली हुई यो छ कि द्वार में श्री गणेश ज्यू और दीवालन में नारायण ज्यू प्रतिष्ठित करी जानी। गीतकारनल यो बसंत ऋतु कैं ‘कामिनी’ और रसिक जनों कैं ‘भँवर’ कै बेर उनन कैं आपस में फाग खेलणकि प्रेरणा लै दि राखी। कतुक सुक्यालो संसार छ यो बसंत )तु क संसार। यो प्रसंग में एक गीत छ-
कै सूं लै रचायो छ यो सुक्यालो संसार रे
कै सूं लै रचायो छ यो मन मा रे।
कै सूं लै रचायो छ यो दिन को सूरिजा
कै सूं लै रचायो छ यो रात को चनरमा
कै सूं लै रचायो छ यो भूमि को भूम्यालो
कै सूं लै रचायो छ यो खोलि को गणेशा
कै सूं लै रचायो छ यो मोरी को नरैणा?
यो प्रकारल ऋतुराज बसंत ऋतुक वर्णन कुमाउनी लोक गीतन में मुख्य रूप में हई छ। अलग-अलग गीतन में समयानुकूल प्रकृति चित्रण लै विशेष रूप में हई छ। बुरूँशा क फूल खिलण लागि जानी। काफल में फल ऊण लागि जांछ। कफू, न्यौलि, घुघुत आदि पक्षी लै उल्लास पूर्ण स्वर में बुलाण लागि जानी। यो स्थानीय पक्षी छन, जो लोक गीतन में आते रूनी। यो पक्षीन कैं प्रतीक रूप में ल्हि राखौछ। यो पक्षीनाक अलावा ‘भँवर’ कैं ‘रसिक’ जनोंक प्रतीक और ‘बसंत )तु’ कैं ‘कामिनी’ क प्रतीक मानि बेर रसिक जनों कें आनंद मनूणाक लिजी प्रेरित करि राखौ-
ओ नारी सुण रे,
ऋतु बसंत नारी खेलि ले फाग
रंगिलो- चंगिलो भँवरा खेलि ले फाग।
बसंत ऋतु यानी- ‘कामिनी’ रसिक जनों हुं कूंछ कि मैं तुमरि प्रेयसी छुं। हिटौ फूलनकि बगिया में उड़ चलनू। वां नई निखार ऐ रौछ। अठरूं बरस में जै प्रकारल यौवन ऊंछ, वी प्रकारल यो )तु लै ऐ रैछ। स्वयं बसंत ऋतु यानी ‘कामिनी’ रसिक जन ‘भँवरा’ हुं कूंछ कि तू आ्ब खेलि ल्हे-

भँवरा तू खेलि ल्हे ऋतु बसंता
तू मेरो भँवरा होलै मैं तेरी नारा
भँवरा उड़ि चल फूलै की बाड़ी
फूलै की बाड़ी भँवरा, रंग जो ल्याई
अठारा बरसा दिन नौं )तु आई
भँवरा तू खेलि ल्हे ऋतु बसंता।
यो लोक गीतन में फूलोंक बगीच, भँवर और पक्षियोंक अलावा उच्च- उच्च डा्न-का्न, पर्वत, पहाड़, गाड़, गध्यार, हरी-भरी चीड़ और बांजाक जंगल, सुंदर सिढ़ीदार हरी-भरी और पिङव खेतोंक लै स्थान-स्थान में वर्णन ऊंछ। बसंत ऊण बखत गीतोंकि एक परंपरा यो लै छ कि गीत पैंली मंदिरन में गाई जानी और फिर घर-घर में-

पैंली रे बसंता कूंलो देवन का द्वार
दूसरो बसंता कूंलो राजों का दरबार
तीसरों बसंता कूंलो घर-घर बार।




कूर्मांचल प्रदेश में लोक गायकोंल जो स्मृति विषयक यानी कि ऋतुरैण संबंधी गीत गै राखी, उन गीतन में ससुराल में रूणी वालि कन्या, चेलि- बेटीन कैं आपुणि मैत कि स्मृति है ऊंछ। यो स्मृतियों क मार्मिक वर्णन ‘)तुरैण’ में उपलब्ध छ। )तुरैणाक गीत अनुभूति प्रधान गीत छन। यो गीतोंक संबंध भाई- बैणियोंकि एक करूण का्थ दगै छ।
कूर्मांचल में यो परंपरा छ कि चैत महैण में कन्याक भाई भेंट ‘भिटौलि’ ल्हि बेर वीक ससुराल जांछ। चेलिक इज आपुणि चेलि हुं संुदर पकवान बगैरह बणै बेर भेजंैछ। कन्या हर बखत आपुण भाई कि प्रतीक्षा में रूंछि। योई प्रसंग कैं ल्हि बेर लोक गायकों ल लोक गीतन में संुदर और मनोरम कल्पना करि राखी-

भाई जती हुनाला, भिटौली ल्हि ऊना,
इजू जती हुनेली, मैतूड़ा बुलूनी।
को मैता बुलालो, को दैजा ठेलालो,
हियो भरी ऊंछ ला, कलिजो कोरींछ।

जब जंगल में या पेड़-डा्वन में कफू चड़ बलाण लागँछ तो ससुराल में रूणी चेलि वी हूं कूंछि-

बास भया कफुवा मैती का देशा
इजू मेरी सुणली, भै भेटूं हुं लगाली। 
घुघुती क बासण पर लै कन्या कैं आपुणि भाई क याद ऐ जांछि। उ घुघुती हुं लै कूंछि-

हो घू घू घू घू घुघुती चड़ी
तेरी माया लै यो खाई पराणी मेरी।
त्वीलै डा्न-का्न, उड़ि-उड़ि जंगल गजायो,
फुलि गैछ दैणा, बैणा मेरो भाई नि आयो।

जब कदिनै घराक अघिल बै पेड़ में का्व कहड़ान लागांै तो कन्या कैं आपुणि मैतकि याद फिर ऐ जैंछ। कदिनै वीक खुटक तल खजाण लागि जांछ तो उ सोचण लागैंछ कि आज मेरि इज भाई कैं भिटौली दिण हुं जरूर भेजलि-

का्व जो कहड़ान आज रत्तै ब्याण
खुट क तल मेरो आज जो खजाण।
इजू मेरी भाई भेजली भिटौली दीणा,
ऋतु ऐ गे रणमणी ऋतु ऐ गे रैणा।

कदिनै ससुराल में चेलि कैं ‘बाटुइ’ लै लागण फै जां, कै बखतै चुल में आ्ग भुरभुराण फै जां। वां मैत में इजु कि लै योई स्थिति है रूंछ। इज कैं लै बाटुइ लागैं और चेलि कैं लै। ससुराल में लै आ्ग भुरभुरां और मैत में लै-

उड़ि-उड़ि दूर-दूर घुरघुरैंछी,
बाटुइ लागैंछी आ्ग भुरभुरैंछी।

आपुणि बैणिकि याद में भाई लै ब्यथित है जां और आपुणि इज हुं कूंछ-
बतै दियो इजू मेरी बैणी को देशा
कै दिशा होली, बैणी हमारी
पका इजू मेरी, लाडू की छापरी
मैं त जानू आ्ब बैणी का देशा।

ऋतुरैणाक यो गीतन में गीतकारनल भाइन कैं आपुणि बैणिन दगै मिलणकि प्रेरणा लै दि राखी-

चैत को यो भिटोई महैणा,
भेटि औ भाया चाइ रौली बैणा।

जब भाई ऊंछ तो बैणि भौतै खुशि है बेर आँसु बगूण लागि जैं, तब भाई बैणि कैं समझूंछ-

न र्वे हो न र्वे बैणी हमारी,
भोव जूंलो हम मैती का देशा।

....और कूंछ कि  कफू चड़ बासण फैगो। सरसों फुलि गे। देख मेरि बैणी बसंत ऋतु ऐ गे। इज कूनैछी सबै बैणी आई, तू नि आई। तेरि याद ऊण पर इजा्क आँखन बै आँसु ऐ गई-

कफुवा बासण फैगो, फुलि गेछ दैणा।
ओ मेरी बैणा, ओ ऐ गे ऋतुरैणा।
इजुलि कूनैछी दीदी, सबै बैणी ऐना,
जब तेरी नराई लागी, आँसु भरी ऐना।
जो बैणिक भाई भिटौलि ल्हि बेर ऊण में देर लगै दिंछ तो उ बड़ि असमंजस में पड़ि जैं और सोचण लागैं-
देराणी जेठाणी को आलो-बालो ऐ रौछ
म्यार भै लै के अबेर लगैछ।

यो बसंत ऋतु लौटि पलटि बेर ऊंछ। कोयल बलाण लागँछ। कफू कुजण लागँछ। घुघुती घू घू घू घू करण लागँछ। न्यौलि लै न्याऊ-न्याऊ करण लागँछ। बण में काफल, हिसाउ, किल्मोड़ि सबै पाकण लागनी। यो सबन कें देखि बेर विवाहित कन्याक हृदय में आपुण मैतुरा देशकि स्मृति जागण फै जैं। आपुण इज-बाब, भै-बैणिन दगै भेट करणाक लिजी उ हर बखत आँसु बगूण लागैं। वीक आँचल गिल है जां। उ न्यौलि, कफू, घुघुत इत्यादि पक्षीन हुं विनय करैं कि उ सब वीक मैतुरा क देश उज्याणि पुकार करौ-

ओ हो ऋतु ऐ गे हेरी-फेरी ऋतु रणमणी
हेरी ऐछ फेरी ऐछ, नौं ऋतु पलटी ऐछ।
ऊंचा डा्न-कानन में कफुवा बासलो,
गैला मैला पातलों में नेवली बासली 
बांजै कि डाइ में घुघुती घुरघुराली
तुम सब बासौ भया म्यार मैती का देशा।

यो स्मृति विषयक गीतनाक अलावा हमार कूर्मांचल में होलि क गीत लै गाई जानी। यो गीत यां ‘ठाड़ि हालि’ और ‘बैठ होलि’ क नामल प्रसि( छन। इनन में जादातर गीत बसंताक गीतन दगै साम्य ल्ही हुई छन। एक उदाहरण-
आयो नवल बसंत, सखी )तुराज कहावे,
पुष्प कली सब फूलन लागी,
फूल ही फूल सुहावे।
विषयवस्तु हिसाबल यां भक्ति प्रधान, श्रंृगार प्रधान और प्रसंग प्रधान होलिक गीत गाई जानी। ‘‘गिरिजा सुत गणपति विघ्न हरो, सब घर-घर मंगल काज करौ।’’ ‘‘सिद्धी को दाता विघ्न विनाशन, होरी खेलें गिरिजापति नंदन’’, ‘‘शिव शंकर खेलत हैं होरी....’’, ‘‘अम्बा के भवन बिराजे होरी’’, ‘‘ऊँचे भवन पर्वत पर बस रही, अंत तेरा नहीं पाया...’’, ‘‘देवी का थान पतरिया नाचे....’’ जा्स अनेक भक्ति प्रधान होलिक गीत यां मंदिर और घरों में बसंत पंचमि बटिक गाई जानी। श्रृंगार प्रधान होलिक गीतन में उन्मुक्त हास-परिहास देखींछ और कुछ अश्लीलता लै। प्रसंग प्रधान होलिक गीतन में पारस्परिक प्रेम और लाख-लाख बरस तक ज्यून रूणकि कामना करणी वा्ल गीत लै गाई जानी। एक उदाहरण-
हो-हो होलक रे! आज को बसंत कैका घर।
आज को बसंत (परिवार के प्रत्येक सदस्य का नाम लेकर)...
को घर।
इनरो पूत परिवार जी रौ लाख बरस, हो होे...
इनरो भरी रौ अन्न धन लै कुठार, हो होे...

हमार कुमाऊँ में चैत महैण में एक बड़ खूबसूरत त्यार हुंछ जो ‘फूल देई’ त्यार कई जांछ। चैत महैणकि सङरांत हुं पैंल दिन बटीकै सबै नानतिन छापरिन कैं फूलनल भरि ल्हिनी। सङरांती दिन फूलनकि छापरि, गुड़ और चावलोंकि थाल ल्ही बेर घर-घर जानी और देलि पुज (द्वार पूजा) करते हुए यो गीत गैनी-
फूल देई, छम्मा देई,
दैणी द्वार, भरी भकार, 
त्वी देई सौं नमस्कार।
आओ देई पूजों द्वार,
भाई जी रौं लाख बरस,
बैणा जी रौं लाख बरस।
फूल देई, फूल देई, फूलों संग्यान,
सुफल करौ नौं बरस तुमन कैं भगवान,
आनै रौला ऋतु मास, हुनै रौला फूल,
बची रौंला हम-तुम, आली फूलों संग्यान।



यो गीतन कैं गाते हुए जब नानतिन देलि पुजनी तो उनन कैं चावल, गुड़ और ढेपू-टा्क दि बेर विदा करी जांछ। रात में चावलों कैं पिसि बेर गुड़ आदि मिलै बेर दई में घोलि बेर ‘शै’ बणाई जांछ।
यो प्रकारल कुमाऊँ क लोक गीत में बसंत ऋतु वर्णन गीत सबन है जादा महत्वपूर्ण और समृद्ध छन । बसंत ऋतु में बसंत पंचमि बै शुरू यो ऋतुरैण गीत, होलिनाक गीत, चैतू गीत, फूल देइक गीत यानी सबै किसमाक गीत नई बरस क स्वागत करते हुए धन्य धान्यकि अधिकता और मंगलमय विचारनकि अभिव्यक्ति करनी। यो सब गीत आपस में प्रेम भाव लै बढूनी।•

पहरूकुमाउनी मासिक पत्रिका , फरवरी २०२० अंक बै साभार 



प्रस्तुति :- ललित तुलेरा 
tulera.lalit@gmail.com

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