कुमाउनी इंटरव्यू : साहित्यकार पद्मश्री डॉ. रमेश चंद्र शाह ज्यू दगाड़ डॉ. हयात सिंह रावत ज्यूक बातचीत
साहित्य समाजक आलोचक हुंछ : पद्मश्री डॉ. रमेश चंद्र शाह
(जून 2004 कि बात छू। पद्मश्री डाॅ. रमेशचन्द्र शाह उतकांन अल्मा्ड़ ऐ रौछी। मैंल उनू दगै गंगोला मोहल्ला में उना्र घर में साहित्य और उनर जीवन दगै जुड़ी सवालों पर कुमाउनी भाषा में बातचीत करै। )
- डाॅ. हयातसिंह रावत
संपादक - ‘पहरू’ कुमाउनी मासिक पत्रिका , अल्मोड़ा (उत्तराखंड)
प्रश्न- दाज्यू! हमूकैं भौत खुशी छु कि आपूँल साहित्यकि हर विधा में खूब किताब ल्यखि राखी और हिंदी साहित्य में भल नाम कमै रा्खौ। मैं यो जा्णन चाँ कि आपूँल को उमर बटी ल्यखन शुरू करौ और उभत आपूँ को दर्ज में पढ़छिया?
उत्तर - हयात! बजार में हमरि दुकान छी। वाँ रद्दी बटी मैंकें ‘चाँद’ पत्रिकाक एक अंक मिलौ। ऊ विधवा अंक छी। ऊ कैं पढ़ि बेर मैंल एक कविता ल्यखी। वीक नाम लै ‘विधवा’ छी। यो म्येरि पैंल रचना छु। यो कविता चैपाई में ल्यखी छु। म्यर ख्यालल उभत में जीआईसी में दर्जा चार में पढ़छ्यूँ। म्यर एक दगड़ी छी प्रजापति शाह। ऊ अंग्रेजी प्रोफेसर है गो आ्ब। जब हम दर्जा छै में पुजाँ तो मैंल और प्रजापतिल मिलि बेर हिंदी में एक हस्तलिखित पत्रिका निकालै। अड़चालीस पेजकि कौपि भै। ऊ में कविता, लेख, चित्र सब पत्रिका चारी बणै-छजै बेर पुर कौपि भरि दिनेर भयां। मैं कविता ल्यखनेर भयूँ और प्रजापति लेख आदि। दुहर अंक में तो मैंल कविता लै ल्यखी, कहानि लै ल्यखी। हमूँल येक करीब तीन अंक निकाली।
प्रश्न - ऊ पत्रिका्क नाम कि धरि रा्ख छी ?
उत्तर - ;भौत देर जाँलै सोचैद्ध पत्रिकाक नाम कि धरि रा्खछी नैं मालम। ऐल यादै नैं औंनैं। जाणी कि नाम छी वीक, भुलि गयूँ। हाँ जब हम दर्जा नौ में पढ़छियां, तब हमूँल एक हस्तलिखित पत्रिका फिरि निकालै। ‘संदेश’ नाम छी वीक। उन दिनों हमूंल एक क्लब लै बणाई भै। वीक नाम छी ‘स्वाधीन क्लब’। उतकांन मलि बजार में नाथलाल साह ज्यूक पटाङण में रामलिल हैं छि। वां ई येक पैंल अंक रिलीज करौ। म्यर ख्यालल यो करीब सन् पचासकि बात हुनेलि। यो अंक कें सौबोंल पसंद करौ। द्वियेक लोग यास छी, जो साहित्य कें समजछी, उनूकैं आश्चर्य लै भौ। उभत करै ‘कुमाऊँ राजपूत’ एक अखबार निकलछी। वीक संपादक कें लै यौ भौत पसंद ऐ।
प्रश्न - ‘संदेश’ में और को-को लोग ल्यखी करछी?
उत्तर - भौत लोग छी। एक प्रेमबल्लभ जोशी छी। उ पढ़न में लै भौत हुस्यार छी। ऊ लेख ल्यखछी। एक दीनानाथ शाह छी। ऊ हमर फुटबौलक कैप्टन लै भै। ऊ खेल और खिलाड़ियों बा्र में ल्यखछी। एक अंक में हौकी खिलाड़ि ध्यानचंद पर लै लेख ल्यखो। एक हरीश लाल छी। ऊ चित्रकार छी। वील पत्रिका में मुख पृष्ठ और चित्र बणाई। करीब चार-पाँच अंक निकाली येक हमूँल।
प्रश्न - ‘संदेश’ पत्रिकाक आपूँ कतू प्रति बणों छिया ?
उत्तर - के नैं बस, एकै प्रति भै वीक। फिरि बारि-बा्री सबै पढ़नेर भयां। मैं पढूँ पैंली, मैं पढ़ूँ पैंली कै लूछा-लूछ हुनेर भै। येक थ्वा्ड़-भौत चित्रण मैंल ‘गोबर गणेश’ उपन्यास में लै करि राखौ। ऊ ‘स्वाधीन क्लब’ सर्वांगीण क्लब भै। उ में फुटबौल लै हुनेर भै। हौकी लै हुनेर भै।
प्रश्न - यो हस्तलिखित पत्रिकाओं बै अलग आ्पणि पैंल रचना को पत्रिका में छपै और कब छपै?
उत्तर - म्येरि पैंल कविता अल्मा्ड़ बै छपनी साप्ताहिक ‘शक्ति’ में छपै। ऊ द्यारा्क रूख पर ल्यखी छी और वीक शीर्षक लै ‘देवदारू’ छी। म्यर ख्यालल यो सन् उन्नीस सौ बावन या तिरपनकि बात हुनेलि। ‘शक्ति’ में छपण में भौत खुशि भयूँ मैं, किलैकि ऊ में सुमित्रानंदन पंत जा्स ठुल साहित्यकार लै छपनेर भै।
प्रश्न - राष्ट्रीय स्तर पर आ्पणि पैंल रचना को पत्रिका में छपै?
उत्तर - ‘वीर अर्जुन’ एक पत्रिका निकलछी, दिल्ली बटि। ऊ में म्येरि पैंल कहानि छपै। पाँच रूपैंक मनीआडर लै आछी। जब मैं इग्यार या बार में पढ़छ्यूँ, तबै बात छु यो। म्यर एक दाज्यू भै-शम्भू प्रसाद शाह। उनर मा्वकोट भै हमर यां। ऊं कभै विशारद और कभै साहित्य रत्न इमतान दिण हूँ आते रौंछी। ऊं ल्यखनेर भै। उनरि कहानि उन दिनों ‘माया’ और ‘मनोहर कहानियां’ पत्रिकाओं में छपनेर भै। मैंल आ्पण ल्यखी द्वि-तीन कहानि उनूकैं पढ़ाई तो उनूकैं एक लै पसंद नि ऐ। उनूँल कै - तू तो कवि छै, कविता ल्यखी कर। कहानि ल्यखन त्यर बशै बात न्हाँ। मैं डिस्करेज तो भयूँ, पर फिरि लै मैंल हिम्मत करि बेर, बणै-बुणी एक कहानि भेजि दी। ‘तबलची’ वीक शीर्षक छी। ऊ छपि गै। फिरि द्वि-तीन और कहानि भेजी, पर ऊँ नैं छप।
प्रश्न - आ्पूँ विद्यार्थी जीवन बटी कविता और कहानि द्विये ल्यखन लागि गो छिया। इन द्विये विधाओं में ज्यादा मन के ल्यखन में ला्गछी ?
उत्तर - कविता में ज्यादा मन ला्गनेर भै। कोई छंद यस नि भै, जै में मैंल नि ल्यख। कठिन हैबेर कठिन छंद मैंल ल्यखी। उतकांन अल्मा्ड़ में एक कुन्दनलाल साह मेमोरियल वाचनालय भै। ऊ पैंल वाचनालय छी अल्मा्ड़ में। एक म्यूनिसपल्टी लाइब्रेरी लै छी। मैं कभतै-कभतै पढ़न हूँ वाँ जनेर भयूँ। वाँ एक ‘आजकल’ पत्रिका देखन में ऐ। ऊ में सरदार जाफरी क एक कविता छपी भै - जबाब इसका कौन दे, किसे अब इतनी होश है कि हिंद आज ....। तो तौई छंद में मैंल महात्मा गाँधी पर एक कविता ल्यखि दी।
प्रश्न - दाज्यू! आ्पूँ कविता लै ल्यखछा, कहानि लै ल्यखछा, निबंध लै ल्यखछा, उपन्यास और समालोचनात्मक किताब लै भौत छपि गई आ्पण। तो इन सब विधाओं में को विधा में ल्यखन में आपूं सज चितूँछा?
उत्तर - जभत कै जस चढ़ि गै। चमक्याट भै ऊ। कविता चढ़ि गै, कविताई कविता ल्यखीनी उभत, फिरि और के नैं लेखींन। सबन है ज्यादा मज ऊँ उपन्यास में, किलैकि यस हुँ कि उ में छै महैंण या कभतै-कभतै साल भरि तक तुम एक आ्पणि दुणी बणै ल्हिछा। तुमा्र बणाई चरित्र हुनी। उनूँ बटी आ्पणि बात कओंन चाँनू। हर चरित्र आ्पणि एक लाइन पकडूं। ये में एक पुरि दुणी आ्पण भितेर ल्हिबेर चलछा और जो असली दुणी छु, ऊ जै अवास्तविक लागैं। उभत यस लागूँ कि हम भगवानै छाँ। जो पात्र कैं हम जाँ हैं घुमून चानूँ, उ वाँ हूँ घुमू और जी कओंन चाँनू उई ऊ कौं। यो जरूवत कवितालि पुरि नि हुनि। और कविताकि जरूवत उपन्यासलि पुर नि हुनि। कविता और कहानि तो एक रौंत में ल्यखी जानी, पर निबंध ल्यखन बड़ कठिन हुँ। गद्य कें कवियोंकि कसौटी कई जाँ। और निबंध तो गद्यक लै कसौटी भै। ललित निबंध ल्यखन और लै कठिन हुँ। मैं अंग्रेजी साहित्यक विद्यार्थी रई छौं। चालर्स लैम्ब भौत पसंदीदा निबंधकार रई छन म्या्र। वीक म्यर ऊपर जरूर प्रभाव पड़ौ। और कोई विद्या में म्यर ऊपर कैक प्रभाव नैं पड़। पर निबंध में मैंकैं चाल्र्स लैम्ब ल जरूर प्रभावित करौ।
प्रश्न- दाज्यू! आ्पूँल भौत से रचनाकारोंक साहित्य पढ़ि राखि हुनेल। हिंदी या अन्य भाषाओं में को यसि रचना छन, जनूकैं आपूँ आज लै याद करछा और जनर असर आ्पण जीवन में लै पड़ौ?
उत्तर - असरक जाँ तक सवाल छु, जस कुछ लोग मौडल बणै ल्हिनी, जस एकलव्य छी, वील द्रोणाचार्य क मौडल बणै ल्ही, तौ अर्थ में गुरु म्यर क्वे न्हाँ। लेकिन जाँ तक आनंद प्राप्तिक सवाल छु, सबन है ज्यादे तो रामायण और महाभारत भै। भौत ना्नछिना पढ़छी। मजकि बात यो छु कि मैसक दिमाग तो आस्ते-आस्ते विकसित छुँ। लेकिन उ में जो कल्पना शक्ति हैंछ, ऊ बिल्कुल रबड़ा चारी खेंचीनेर भै, जतुक खेंच ल्हिछा। तौ क्वालिटी हैं सिर्फ ना्नछिना। तो मैं में खूब छी। उभत कै जो तुम पढ़ ल्हिछा, उ कभै नैं भुलींन। उभत पढ़ीयक महत्व यो छु कि जब तुम फिरि बाद में पढ़छा तो वीक बौद्धिक अर्थ तो बाद में समझ में औं, लेकिन जो वीक असली दुणी छु, ऊ में पैठ ना्नछिनाई बटि बणि जैं। ना्नतिनों में विश्वास करणकि अथाह ताकत हैं। अगर तसि किसमकि दीक्षा मिलि गै, कल्पना की दीक्षा, भाव की दीक्षा, इन्द्रियों की दीक्षा, तो तई चीज आदिम कें असल में साहित्यकार या कलाकार बणैं। बाद में बुद्धिक विकास हुनै जाँ। यूरोपीय उपन्यासों में एक आदि उपन्यास मानी जाँ-जान किंग जोट। बड़ कलैसिकल उपन्यास छु। वीक ‘किंग ज्योति’ नामल हिंदी अनुवाद एक दिन रद्दी में म्या्र हा्त लागि ग्ये। बड़ि टेªजिक चीज छु, पर कै रा्खौ सब लीला भावल। बड़ मज ओं उ कें पढ़न में। उसिकै टालस्टाय क रिजर्वशन पढ़ि दी मैंल, हिंदी अनुवाद ‘पुनर्जन्म’ नामल, जब मैं दर्जा नौ में पढ़छीं। फिर सबन है जोरदार घटना मैंकै याद छु-प्रेमचंद क उपन्यास ‘रंगभूमि’ एक दिन हमर बाबुल पढ़ हुनौल। ऊं ऐ म्या्र पास, यो किताब मैंकें दि हूँ। मैं आ्पण इस्कूलक काम करनाछी। उना्र हा्त में किताब छी, पर उना्र मुख बै अवाज नि ऐ, आँख डबडबान। मैंल उनरि शकल देखी, उनरि हालत देखी। तो ऊ क्षण छी, जब म्या्र मन में यो बात बैठि गै कि साहित्य कि चीज छु। और यो आदिम दगड़ि कि करि सकूं। साहित्यकि जो ताकत छु वीक प्रत्यक्ष दर्शन भई। एक किताब छु ‘हितोपदेश’। म्यर ऊपर वीक भौत असर पड़ौ। ऊ ना्नछिनां मैंल रघुनाथ मंदिर कि लाइबे्ररी बै पढ़ै।
उत्तर - उसी पढ़न - ल्यखनक माहौल तो के नैं भै। जस बा्ब छी, आ्पण जमानाक दर्जा पाँच - छै पास भै ऊँ। पर किताब पढ़नक शौक थ्वा्ड़-भौत धरनेर भै। ये है अलावा घर में साहित्यक के विशेष माहौल नि भै। कविता, कहानी बात क्वे करनेर भये नैं। उल्ट कै नड़क्ये जै दिनेर भै। मैं कोशिश करनेर भयूं कभतै कवि सम्मेलन में आ्पणि कविता पढ़िओं कैबेर। वाँ लै मैं कैं कैलै इनकैरेज नैं कर, घर में लै उसै भै। हाँ शम्भू दाज्यू जरूर साल में एकाध दफै हमा्र घर आई करछीं, उनूँल जरूर मैंकैं ल्यखनै लिजी इनकैरेज करौ।
प्रश्न - उतकांन अल्मा्ड़ में पढ़न-ल्यखनक माहौल कस छी?
उत्तर - पढ़न-ल्यखनक माहौल तो भल भै यां। यांक सांस्कृतिक माहौल जबरदस्त भै। जै में राजनीति लै छु, धरम लै छु, संगीत लै छु, खेल-कूद लै छु। यों सब आपस में यसी घुली-मिली भया कि एक कैं दुहा्र हैबेर अलग करी नि सकना। मैं कोई पढ़ाकू या किताबी किड़ नि भयूँ। खेल-कूद में भौत शौक धरनेर भयूं। म्या्ल - ख्यालक लै बड़ रौंत भै। संगीतकि महफिल में लै बैठनक शौक भै। भाषण सुणनक लै शौक भै। नंदादेवी मैदान में अक्सर क्वे न क्वे नेता आते रौंनेर भै। बड़ जीवंत माहौल भै, जैथैं कूंनी विद्योन्मय। पुस्तकालय-वाचनालय जैबेर अखबार, पत्र-पत्रिका पढ़नेर भयां, ऊ खूब मिलि जानेर भै। खेल-कूदक लै उन दिनों बड़ जबरदस्त नश भै। पल्टन फील्ड में के न के टूर्नामेंट हुनै रौंनेर भै।
प्रश्न - आ्पूँ को खेल में भाग लिई करछ्या?
उत्तर - शुरू-शुरू में फुटबौल लै खेलौ। पर हौकी खेलणक विशेष शौक छी।
प्रश्न - आपूं विद्यार्थी जीवन में जैतकांन ल्यखनौछिया, उतकांन अल्मा्ड़ बटी और को-को ल्यखनाछी और छपनाछी?
उत्तर - एक तो त्रिलोचन पाण्डे ज्यू छी, जनरि कविता ‘शक्ति’ में छपी करछी। कुमाउनी लोक साहित्य में सबन है महत्वपूर्ण काम उनूंल करि राखौ। शैलेश मटियानिक नाम लै सुणन में ओंछी। पुरा्ण जो भै, इलाचन्द्र जोशी ज्यू नाम सुणीयकै भै। जब मैं इण्टर फाइनल में पढ़छीं तो उनर सोल निबंधोंकि एक किताब पढ़ी मैंल। मैं भौत प्रभावित भयूँ।
प्रश्न - अच्छा दाज्यू। एक चीज जा्णन चाँ, जै थैं रचना प्रक्रिया कौंनी। आपूँ ल्यखन कसी शुरू करछा और फिर रचना फाईनल रूप तक कसी पुजैं?
उत्तर - कविताकि रचना प्रक्रिया तो यो हैं कि तुमूकैं पैंली बटी मालम नि हुन कि तुम कि कूँण चानौछा। कविता ऊ छु जै में तुमन कें एक चमक्याट जै है जाँ, क्वे दुहरि शक्ति तुमा्र भीतर बटी के निकालि दीं, जैं कैं तुमूंल खुदै नैं सोचि रा्ख, अपूर्वा अनुमेय जै थैं कौंनी, पैंली बटी जैक के अनुमान नि हो। मैं जब कविता ल्यखूँ तो जादातर यई मनोदशा में ल्यखूँ। एक कुलबुलाट जै भितरपन लागूँ, कि के हुनेर छु। दिमाग एक अजीब तरीकल चंचल लै है जाँ, शान्त लै है जाँ, कुछ विरोधाभासी जसि मनोदशा है जैं, तो फिर उ में बिल्कुल लय में बँधी हुई कुछ शब्द ओंनी, जाँ एक पंक्ति आई तो ऊ आ्पण पछिल बै फिर दुहरि पंक्ति लै ल्हिबेर ऐं। लेकिन के रूप ह्वल उ कविताक, को छंद में आलि, छंदमुक्त होलि या छंदबद्ध। जब वीक फौर्म तय है जां फिर कथ्य आफी बणि जां। कहानिक यस भै। कोई चरित्र तुमूकें याद ऐजां - ना्नछिनांक। जादातर म्यर जो फिक्सन छु कहानि या उपन्यास में, म्यर ख्यालल सबनकै दगड़ यसै हुन हुन्योल, जो शुरु-शुरुकि कहानि या उपन्यास हुनी, ऊ ल्यखनेर वालक खुदक जो अनुभव छु, रौ मैट्रीयल वाँई बटी मिलूँ, चाहे परिवेश बदल जौ, लेकिन मैसकि पछ्यांण, समाजकि पछ्यांण, शुरू में ऊ ई ज्यादे रौंनी।
प्रश्न - आ्पूँ जो रचना कें ल्यखन शुरू करछा, उकैं फाईनल कतुक बारी में करछा?
उत्तर - तौ अलग-अलग चीजनाक साथ अलग-अलग हुँ। जब मैंल ‘गोबर गणेश’ उपन्यास ल्यखौ। वीक पैंल चैप्टर सोल पेजक छु। एक दिन रत्ती-ब्यांण तीन-चार बाजी नीन खुलि गै। मैं कें ला्गौ कि मैं के लेखण चाँ। के लेखण चाँ, यो के पत्त नैं भै। लेखण हुँ बैठि गयूँ। फिलमकि रील जसि खुलि गै। मैं लेखनै रई, लेखनै रई, लगातार सात घंट तक। जोरदार शुरूवात हैगै। पैंल चैप्टर पुर हैगै। फिर बाद में जाणी, सुक पड़ि गै। पाँच-छै महैंण तलक एक शब्द नैं लेखींन। पैंल चैप्टर एक रौंत में जसी ल्यखौ, जसक तस, उसक उसै, उमें एक शब्द, एक कौमा, फुलिसटौप लै नैं बदव। उ बाद छै महैंण बाद फिरि शुरूवात भै। फिरि दिमाग में एक खाका बणि जां, इत्मीनान है जाॅ, के हड़बड़ी नैं रौंनि। के उद्वेग नैं रौंन। ‘गोबर गणेश’ पैल खण्ड में के खास रिवीजन नैं भै। दुहर भाग (चैप्टर) लै उसी कै स्याट्ट चारै एक रौ में लेखि दे। दुहर उपन्यास छु ‘किस्सा गुलाम’ उ कें मैंल द्वि बखत ल्यखौ। तिहर उपन्यास ‘पूर्वापर’ तीन बखत ल्यखौ। छठूँ उपन्यास ‘आप कहीं नहीं रहते विभूति बाबू’ परारी बेर छपौ। सबन है ना्न उपन्यास छु।मुश्किलल सौ सवा सौ पेजक हुनेल, लेकिन उ कैं ल्यखन में मेरि हालत खराब हैगे। उ कैं ल्यखन में चार-पाँच साल लागी। एक दफे तो लेखियक फाड़ि दे। फिर उठा, फिर ल्यखौ। चार-पाँच दफै रि राइट, रि राइट। तो के नैं कई जै सकींन। कविता तो जादेतर जो फस्ट ड्राफ्ट हुँ उ ई फाइनल है जाँ। पर कभतै जो जटिल कविता हुनी, उ में टैम लागूँ। उ दगा्ड़ बड़ि मेहनत करन पड़ैं। पैंल ड्राफ्ट तो है जाँ, लेकिन फिर नई-नई बात, नई-नई शब्द सुजनी, कोई शब्द ठीक् नैं ला्गन, पुर खजबजी जैं ऊ। उकैं फिर से ल्यखन पड़ूँ। निबंध और समालोचनाक जाँ तलक सवाल छु, उ एक बैठक में लेखी जानी। उनू में बस वाक्य, शब्द बगैरह में थ्वा्ड़ भौत गुजांइश रैं। लेकिन दुहर-तिहर ड्राफ्टकि जरूवत नैं पड़नि। समालोचना लै मैंल किलै लेखि? तौ कविता कें बचूनाकै लिजी लेखि। छायावादा्क कवियों निराला, पंत कें मैंल जब ठुलि उमर में पढ़ौ तो यस लागौ जाणी कौलौ मैंल डिस्कवर करि राखी यो। जसी खणते-खणते तुमूकैं सुनू हा्त लागि गो। उ रौंतल मैंल उकैं लेखि दे। तुम देखला करीब डेढ़ सौ-द्वि सौ पेजकि किताब होलि ऊ - ‘छायावाद की प्रासंगिकता’ उ में एक कोटेशन न्हाँ। उ बिल्कुल डिस्कवरी चारै लेखि राखै। जो कविता छी, उ बटी जो मैंकैं उज्या्ल मिलौ, जो दृष्टि मैंकैं मिली, जो आनन्द मैंकैं आ, उ जसक तस लेखि दे। छायावादा ऊपर तब तलक सैकड़ों लोगन लेखी भै। पर मैंल एक किताब लै नैं पढ़ी भै। कैल कि कै राखौ मैंकैं के पत्त नैं भै। फिरि लै उ महत्वपूर्ण किताब समझी गै, बड़ि चर्चित रै।
प्रश्न - कुमाउनी में आ्पूंल कब बटी ल्यखन शुरू करौ?
उत्तर- कुमाउनी में, मैं कभै ल्यखुँल कै, मैंल स्वींण में लै नैं सोची भै। बुलाण हूँ जरूर कुमाउँनी में बुलानेर भयूँ, यानी घरा भितेर हिंदी बुलाणकि के कल्पना लै नै भै। भोपाल में लै कभतै क्वे कुमाउनी मिलि गयौ, उना्र दगा्ड़ लै मैं कुमाउनी में बुलानेर भयूँ। पैंली मैं दिवाली में लै घरआई करछीं। करीब बावन-तिरपन वर्षकि उमर में, दिवालिक दिन छी, दियक उज्या्ल ढोली रौछी, म्या्र मन में एक पंक्ति कुमाउँनी में ऐगै, बस एक कविता बणि गै, तिहा्र-चैथ दिन फिर एक कविता, फिर एक कविता। कभतै हफ्ता भर बाद, कभतै दस दिन में, पनर दिन में लगातार एक साल भितर मैंल करीब साठ कविता लेखि दी। उ है पैंली लै नैं लेखी भै, उ बाद लै मैंल फिरि नि ल्यख। फिर मैं गद्य ल्यखन लागि गईं।
प्रश्न - आ्पण कुमाउनी कविता में ‘उका्व-हुला्र’ एक संग्रह छपि रौ। उ बाद आजि कतुक कविता छन, जो ‘उका्व-हुला्र’ में शामिल न्हांतन?
उत्तर - जादे न्हांतन। जादे लेखी नि रा्ख। ‘आँखर’ पत्रिका वालोंल गद्य मांगौ तो मैंल गद्य लेखि दे फसक-फराल। उ छपि गै। ऊ मनोहर श्याम जोशी ज्यूल पढ़ हुनल। कुमाउँनी में यस लै ल्यखी जै सकीं कै, उनूँल तारीफ करै। फिर गद्य में द्वि-चार और ल्यख हुनौल।
प्रश्न- दाज्यू! आ्पुँ कें साहित्य में भौत पुरस्कार मिलि रई। हाल में पद्म श्री सम्मान लै मिलौ। जब येक सूचना आपुकें मिलै तो कस ला्गौ?
उत्तर - लेखक जो हुँ वीक लिजी सबन है ठुलि खुशी यो हैं कि जब वीक ल्यखी हुई कें कोई पढ़ि बेर प्रतिक्रिया करूँ।तब लागूँ कि वीक बात समझी जनै, तहै ठुलि खुशी के नि है सकनि। तहै ठुल पुरस्कार लै के नि है सकन। लेकिन जाँ तक पुरस्कारोंक सवाल छु।पुरस्कार एक प्रकारकि सामाजिक स्वीकृति लै छु। तो ये लिजी खुशी स्वाभाविक भै।‘पद्म श्री’ तो उसिक लै साहित्य वालों कें कमै मिली करनेर भै। मैंकैं लै पैंली ताज्जुब जै भौ। यो कसिक भौ कैबेर। लेकिन सम्मान तो सम्मानै भै। फिरि खुशी लै भई छु। एक संतोष तो हुणै छु। चलौ कैलै तो करौ मूल्यांकन।
उत्तर - मैंसक जो हृदय छु, वीक सर्वश्रेष्ठ अभिव्यक्ति साहित्य भै। साहित्य में लै द्वि श्रेणी हुनीं। एक ज्ञानक साहित्य हुँ जसी अर्थशास्त्र, राजनीतिशास्त्र, समाजशास्त्र, इतिहास, भूगोल, कानूनी किताब, यो सब ज्ञानक साहित्य भै। दुहर हुँ शक्तिक साहित्य । जो भावनाओंक भितर बै ओं, उ में ज्ञान लै हूँ, लेकिन भाव महत्वपूर्ण हुँनी। उ आदिमक भीतरकि शक्ति कैं जगौं मैं समझूं साहित्य यसि जा्ग छु, जाँ सारि दुणी समै जाँ, जाँ मैंस मैंसक प्रति न्याय करूँ। हर आदिमकि प्यास हैं, उ कैं सई-सई समझी जौ। असल प्यास मैंसकि यो हैं कि उ कें कोई प्यार करौ, उ कें कोई भली कै समझौ, उ गलत छु तो कोई उ कैं टोको। टोकल उई, जो प्यार करल। मैंसा्क द्वि भूक हुनी। एक भूक छु सच्चाई, दुहरि भूक छु सौन्दर्य। जो पढ़ी-ल्यखी नि हुन, उनूमें लै सौन्दर्य बोध हुँ। मैंल या्स-या्स लोगन कैं देखि राखौ, जो भले ही गरीब हो, अनपढ़ हो, पर उनर घर कें द्यखौ, सफाई कैं द्यखौ, उनरि सजावट कें द्यखौ, खुबसूरती कैं द्यखौ, देखते ही आनन्द ऐ जाँ। यो भै सौन्दर्य बोध। सौन्दर्य बोध डबलल नि हुन। जि लै चीज वस्तु तुमा्र पास छु, उनर लय आपस में मिली हो और दुहा्र कें उ भल ला्गौ, सुन्दर ला्गौ। योई तो सौन्दर्य बोध भै। अब जाँ तलक भलि रचनाक सवाल छु। भलि रचना में सत्य हुँण चैं, उ प्रिय हुण चैं, सुन्दर हुण चैं दगा्ड़ दगाड़ै उ में जिंदगिक दबाव हो, संघर्ष हो। कुछ लेखक आ्पण मनल एक मनमाना आदर्श, कल्पना ठाड़ि करि दिनी, यानी उपदेशात्मक रचना, उ भलि नि ला्गनि। हम चाँनू कि कोई आदिम यस कूनौ कि यो बात हुण चैं, कसी हुण चैं, किलै हुण चैं। विपरीत परिस्थिति में लै कोई आदिम आ्पणि फैदे चीज कें छोड़ि बेर नुकसान उठूंनौ, किलै उठूनौ। क्वे ठुलि चीज मिलनै हुनेलि उकैं, तब उकैं अन्तरआत्मा में संतोष मिलनौ, उ डबल-टा्क है लै जादे छु। जिंदगिक मुश्किल छु, कुरूपता छु, ब्याधि छु, संघर्ष छु, उ लै द्यखा्व हुण चैं और ये बीच बटी, जसी आ्ग बटी सुन निकलूँ, मैंस उसी कै निकलनौ, यस देखींण चैं, तब उ रचना थैं श्रेष्ठ रचना कई जै सकीं। जस ‘वार एण्ड पीस’ छु, ‘गोदान’ छु, अज्ञेयक ‘शेखर एक जीवनी’ छु, ताई चरित्र छु - अमृत लाल नागर क कविता हो तो यसि हो कि जै में विरोधी भावनाऔंकि टक्कर देखियो। खालि इकार-इकारै भावुक उच्छवास वालि कविता कैं लै आ्ब क्वे पसंद नि करन। कविता मैं कैं उई भलि लागैं, जै में शब्दोंक फिजूल खर्ची नैं हो। थ्वा्ड़ै शब्दों में जो पुरि बात कै दियो। यसि अभिव्यक्ति हो, जो दिल कें छु दियो। निबंध, समालोचना या लेख ज्ञानकि चीज छु, उ में यो ला्गौ कि यो आदिमल भौत पढ़ि रा्खौ। यो जिंदगी कें लै उतुकै समझों, जतुक किताबों कें समझों।
उत्तर - साहित्यकार समाजका बीच बटी निकलूँ। हम समाज और संस्कृति कें अलग करि बेर देखनूँ। सई बात यो छु कि समाज, संस्कृति कें नैं बणोंन बल्कि संस्कृति समाज कें बणैं। जसि संस्कृति होलि, उसै समाज ह्वल। लेखकक जादै संबंध संस्कृति दगै हुँ, संस्कृति में लै द्वि किसमा्क मूल्य हुनी। एक तो शाश्वत मूल्य हुनी, जो बदलीन नैं। एक या्स मूल्य हुनी, जो बदलते रूंनी। साहित्यकार कें ऊ परिवर्तन कैं लै देखन पड़ौं और शाश्वत मूल्यों कें लै। लोग कूँनी साहित्य समाजक दर्पण हुँ, पर मैं तो मानूँ साहित्य समाजक आलोचक हूँ। समाज में जो क्षुद्रता छु, गैर बराबरी छु, जो बुराई छु, जो भलाई छु, उसै तो साहित्यकार ल्यखल। साहित्यकार कें जन रूचिक परिष्कार लै करन पड़ल। लेखक कें सत्यवक्ता हुण चैं। कटु सत्य कौंणकि हिम्मत हुण चैं साहित्यकार कें।
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