‘क़ुली बेगार प्रथा’ पर कुमाउनी कवि ‘गौदा’ की’ लिखी कुमाउनी कविता
कुमाउनी कवि : गौरीदत्त पाण्डे ‘गौर्दा’
जन्म - अगस्त, 1872
ग्राम - पाटिया, अल्मोड़ा
निधन - अक्टूबर, 1939
१. ‘गौर्दा’ का काव्य दर्शन
२. छोड़ो गुलामी ख़िताब
३. ECHOES FROM THE HILLS
(गौर्दा की चुनी कविताएं और उनर अंग्रेजी अनुवाद।
तीनों किताबों क संपादन - चारुचन्द्र पाण्डे।)
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अंग्रेजोंक शासन में पैंली कुमाऊँ (उत्तराखंड) में ‘कुली बेगार’ प्रथा चली हुई छी। येक खिलाफ कुमाऊँ में जबरदस्त आंदोलन चलौ। कुमाऊँ केसरी बदरीदत्त पाण्डे ज्यूक नेतृत्व में 13 जनवरी, 1921 हुँ, बागेश्वर सरयू नदी बगड़ में एक विशाल सभा भैछ। उ सभा में लोगनल आज बटी ‘कुली बेगार’ न करूँ कै, हाथ में सरयू पाणि ल्ही बेर कसम खै और पधान/ थोकदारोंल आ्पण-आ्पण गौंक कुली रजिस्टर सरयू में बगै दी। तब बटी कुमाऊँ में ‘कुली बेगार’ प्रथा बंद हैगे। येक बार में कुमाउनी कवि गौरीदत्त पाण्डे ‘गौर्दा’ ल एक कविता लेखी-
(चित्र: ‘उत्तराखंड में क़ुली बेगार प्रथा’ किताब बै )
कुली उतार
मुल्क कुमाऊँ का सुणि लिया यारो,
झन दिया कुल्ली बेगार।
चाहे पड़ी जा डंडै की मार।
झेल हुणी लै होवौ तय्यार।
तीन दिन ख्वे बेर मिल आना चार।
आंखा देखूनी फिर जमादार।
घर कुड़ि बांजि करि छोड़ि सब कार।
हांकि लिजांछा मालगुजार।
पाकि रूंछ जब ग्युं धानै सार।
दौरा करनी जब हुनी त्यार।
म्हैण में तीसूं दिन छ उतार।
लगियै रूंछ यो नित तार।
हूंछिया कास ऊं अत्याचार।
मथि बटिक बर्ख छ मूसलाधार।
मूना लुकुण सुं न्हांति उड्यार।
टहलुवा कूंछिया अमलदार।
बरदैंस लीजिया सब तय्यार।
फिर लै पड़न छी ज्वातनैकि मार।
तबै लुकछियां हम गध्यार।
द्वी मुनि को बोझ एका का ख्वार।
भाजण में होला चालान त्यार।
भुख मरि बेर घर परिवार।
भानि कुनि जांछि कुथलिदार।
ख्वारा में धरंछी ढेरो शिकार।
टट्टी को पाट ज्वाता अठार।
ताजि ताजि चैंछ दूधैकि धार।
खोलि लिजांछ गोरु थोकदार।
सोचि लियौ तुम दुख अपार।
भंगी बणूछिया अपनो रिस्यार।
खूटा मिनूछियो रिस्तेदार।
घ्वाड़ा मलौ कूंछ सईस म्यार।
पटवारि चपरासि अरु पेशकार।
अरदलि खल्लासि आया सरदार।
बाबर्चि खनसाम तहसीलदार।
घुरुवा चुपुवा नपकनी न्यार।
बैकरन की अति भरमार।
दै दूद अंडा मुर्गि द्वि चार।
को पूछौ लाकड़ा घास का भार।
बाड़ बाड़ा मालै लै भरनी पिटार।
अरु रात दिना पड़नी गौंसार।
भदुवा डिप्टी का छन वार पार।
अब कुल्ली नी द्यूं कै करौ करार।
कानून न्हांति करि है बिचार।
पाप बगै हैछ गंगज्यु की धार।
अब जन धरौ आपणा ख्वार।
निकाली धरौ आपणा ख्वार।
निकाली नै निकला दिलदार।
बागेश्वर है नी गया भ्यार।
कौतिक देखि रया कौतिकार।
मिलटों में बंद करो छ उतार।
हाकिम रै गया हाथ पसार।
चेति गया तब त जिलेदार।
बद्रीदत्त जैसा हुन च्याल चार।
तबै हुआ छन मुल्क सुधार।
कारण देशका छोड़ि रुजगार।
घर घर जाइ करो परचार।
लागिया छन यै कारोबार।
ऐसा बहादुर की बलिहार।
दाफा लागी गेछ अमृतधार।
बुलाणा हैं करि हालों लाचार।
डरिया क्वे जन खबरदार।
पछिल हटणा में न्हांति बहार।
चाकरशा..... देली धिक्कार।
फूकि दियौ जसि लागिछ खार।
भूत बणाई कुलि उतार।
बणि आली उनरी करला उतार
कैसूं उठैया जन हथियार।
जंगल का लै दुख होला पार।
काम जन करिया कोई गंवार।
जंगल में तुम खबरदार।
हूणा लागी रई मुल्क सुधार।
मणिमणि कै मिलला अधिकार।
हमरा दुख सुणि भयौ औतार।
गाँधी की बोलौ सब जै जैकार।
जागि गोछ अब सब संसार।
भारत माता की होलि सरकार।
ज्यौड़ि बाटी हैछ लु जसौ तार।
तोड़ि नि सकनौ भूरिया ल्वार।
सत्य को कृष्ण छ मददगार।
हमरी छ वांसू अन्त पुकार।
चिरंजीव गोविन्द बद्री केदार।
हयात मोहन सिंह की चार।
बणी गईं यों मुल्क का प्यार।
प्रयाग कृष्णा छन हथियार।
ऐसा बहादुर चैंनी हजार।
स्वारथ त्यागि लगा उपकार।
शास्त्री लै छन देश हितकार।
इनन सूं लै लागि छ धार।
देशभक्ति की यो छ पन्यार।
कष्टन सहनेर होय हजार।
स्वारथि मैंसू की न्हांति पत्यार।
आपुणा देसकि करनी उन्यार।
नौकर शाही छ बणि मुखत्यार।
कुल्ली देऊणा में मददगार।
बिनती छ त्येहूं हे करतार।
देश का यौं लै हूना फुलार।
आकास बाणी छ नी हवौ हार।
जीत को पांसो छन पौबार।
देश का गीत गावौ गिदार।
चाखुलि माखुलि छोड़ौ भनार।
निहोलो जब तक सम व्यवहार।
भुगतुंला तब तक कारागार।
लागि पड़ि करौ देश उद्धार।
नी मिलौ तुमन फिरि फटकार।
दीछिया गोरख्योल कन फिटकार।
वी है कम क्या ग्वारख्योल यार।
पतो छ मेरो लाला बाजार।
गौरीदत्त पाण्डे दुकानदार।।
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हिंदी भावार्थ-
मुल्क कुमाऊँ के लोगो ! सुनो, कुली-बेगार मत देना, चाहे डंडों की मार पड़ जाए । जेल जाने के लिए भी तैयार रहो। तीन दिन खोकर चार आने मिले,जमादार फिर आँख दिखाता है। घरबार को चौपट कर सब कामकाज छुड़वा, मालगुजार पशुओं की तरह हाँक ले जाता है। गेहूँ और धान की फसल जब पकी रहती है, तब जब त्यौहार होते हैं, तब ये हाकिम-हुक्काम दौरा करते हैं। महीने में तीसों दिन इनका बोझ ले जाना पड़ता है, हमेशा यह कम बना ही रहता है। कैसे-कैसे वे अत्याचार होते थे। ऊपर से मूसलाधार बारिश, सर छुपाने को कहींचट्टान की खोह नहीं। ऐसे समय में हमसे बोझ डुलवाया जाता था। अमलदार हमसे 'टहलुवा' कहते थे, सब बर्दायश तैयार लेते थे, फिर भी जूतों की मार पड़ती थी। उस अत्याचार से बचने के लिए हम नालों में छिपते थे। दो आदमियों की सामथ्र्य का बोझ एक के सिर पर लाद दिया जाता था। कहते थे, भागोगे तो तुम्हारा चालान होगा । हमारे बाल-बच्चों को भूखा मारकर भौडे-बर्तन आदि भी उठा ले जाते थे। सिर पर भैंस का गोश्त रखना पड़ता था, उनके जूते,कमोट उठाने पड़ते थे। ताजी दूध की धार भी तो चाहिए इन्हें । थोकदार गाय ही खोल ले जाता था। सोच लो अपने अपार दुखों को। अपना रसोइया, अपना भंगी सब कुछ बनाते थे हमें। सिरिश्तेदार अपने पैर मलवाता था। सईस-चोड़ों की मालिश करो, कहता है। पटवारी, पेशकार, अर्दली, खल्लासी, आया, सरदार, बाबी, खानसामा, तहसीलदार अलग धौंस जमाते हैं । अन्न अलग देना पड़ता है। दही, दूध, बडे, दो-चार मुनियाँ अलग चाहिए। लकड़ी और पास के गदर तो कौन पूछे !कीमती माल-असबाब से अपने सन्दूक भरते हैं, रात-दिन गाँव की फसल पर टूट दौड़-धूप में लगे रहते हैं। अब वादा करो कि कुली-बेगार नहीं देंगे। देख लिया 310/ उत्तराखंड में कुली बेगार प्रथा गया है, कोई ऐसा कानून नहीं। गंगा की धारा में इस पाप को हम लोगों ने बहा दिया है (बागेश्वर सरयू की धार से आशय है)। अब इस पाप को अपने माथे पर मत रखना। दिलेर लोग 'निकल जाओं' कहने पर भी मैदान में डटे रहे । बागेश्वर से बाहर नहीं हटे, सब मेले वाले यह कौतुक देखते ही रह गये । मिनटों में कुली-उतार बन्द कर दिया। हाकिम हाथ पसार कर रह गये। जिलेदार चेत गये। (हे विधाता!) इस धरती को बदरीदत्त (कुमाऊँ-केसरी) जैसे वीर-पुत्र और दे (जिनके सिंहनाद ने ब्रिटिश सत्ता की भारी बन्दूकें झुका दीं।) ! देश के कारण अपना रोजगार छोड़ घर-घर जाकर प्रचार किया, इसी देश के काम में लगे रहे। ऐसे बहादुर की बलिहारी है। इनकी अमृतमयी वाणी पर भी नियंत्रण लग गया, बोलने से लाचार कर दिये गये । खबरदार, कोई डरना मत ! पीछे हटने में आनन्द नहीं, नौकरशाही धिक्कारेगी। जैसे तुम्हें चिढ़ लगी थी ऐसे ही इस कुली-उतार के भूत को फूंक डालो। उनकी बन आयेगी तो कुली उतार करेंगे, तुम किसी पर हथियार मत उठाना। जंगलात के कष्ट भी दूर होंगे। खबरदार ! तुम जंगल में कोई काम मत करना, मुल्क में सुधार हो रहे हैं. धीरे-धीरे अधिकार मिलेंगे। हमारे दुख सुनकर अवतार हुआ है-सब गांधी की जै बोलो। अब संसार जाग गया है। भारत माता की सरकार बनेगी, लोहे का-सा मजबूत तार-यह रस्सी बट गयी है (हम एक सूत्र में मिल गये हैं)। भूरा लोहार (आतंकवाद की प्रतीक गोरी फ्रोज) इस तार को नहीं काट सकेगा । सत्य का मददगार भगवान है। हमारी अन्तिम पुकार उसी से है । हे गोविंद ! हमारे बद्री-केदार धाम बने रहें (बदरीदत्त जी, हरगोविंद जी, चिरंजीलाल जी वीरों की ओर भी संकेत है)। ह्यातसिंह, मोहनसिंह की तरह काम करो, ये देश के प्यारे बन गये हैं। प्रयागदत्त और कृष्णानंद इस लड़ाई के हथियार हैं। ऐसे हजारों बहादुर हमें चाहिए । स्वार्थ छोड़कर सब परोपकार में लगें, शास्त्रीजी भी देश हितकारक हैं। इनके लिए भी धारा लगी है-देशभक्ति की तो यही पहचान है। हजारों लोग कष्ट सहने वाले बनें, स्वाथियों का विश्वास नहीं है। वे अपने देश को नीचे ले जाते हैं। नौकरशाही मुख्तार बन गयी। कुली दिलाने में ये अफ़सर मददगार बने। हे करतार ! तुझसे प्रार्थना है, इन्हें भी देश का 'कुलार' (फूल लाने वाला) बना देना । आकाशवाणी है-हिम्मतहार न होओ। जीत का पासा पौबारह है । गायको ! देश के गीत गाओ। ऐरो-गैरो! हमारे भंडारगृह को छोड़ दो। जब तक समता का व्यवहार न हो, तब तक कारागार भोगेंगे। मिल-जुल कर देश का उद्धार करो, फिर तुम्हें फटकार नहीं मिलेगी। तुम गोरखों के शासन को कोसते थे, गोरों का शासन उससे क्या कम है ! मेरा पता है : गौरीदत्त पांडे, दुकानदार, लाला बाजार, अल्मोड़ा।
(श्री चारुचंद्र पांडे कृत 'कुमाउनी कवि गोर्दा का काव्य दर्शन' (1905) से साभार । यह कविता मार्च 1921 में 'शक्ति' में पहले-पहल प्रकाशित हुई थी।)
( य कविता ‘पहरू’ कुमाउनी मासिक पत्रिका बटी और हिंदी भावार्थ ‘उत्तराखंड में क़ुली बेगार प्रथा’ किताब बटी साभार )
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