कुमाउनी कहानी : ध्यूड़कोट

देवकीनंदन भट्ट ‘मयंक’
      तीनपानी, हल्द्वानी, मो.-9917441019
      
   भौत पैंली सन बासठकि चीनकि लड़ै समयकि बात छु। च्याली नामक 20-25 मवासक गौं छी। ऊ गौं में राम सिंह नामक एक नानि जोतक किसान आपुणि बुढ़ि इज दिगै रौंछी। राम सिंह भल मिलनसार आदतक लौंड हणक कारण गौं वा्ल उकैं प्यारल ‘रमी’ कौंछी। रमी जब 20-22 सालक है गोय तो वीक इजल भनारि गौंक एक भलि बान चेलि राधा दगै वीक ‘ब्या’ कर दी। राधा उज्याव मुखड़कि भलि गोरि फनार 17-18 बर्षकि लौंडि हइ। उ मैत बै दैज लै ठीक-ठाकै ल्याई हइ। गौंक सब लोग रमियकि इज हैंती कौनेर हाय- ‘रमिए इजा! ब्वारि के ल्याछै ‘सुनक टुकुड़’ ल्याछै। सार गौं-घरों में तेरि जसि देखण-चाण और छाव -छरपट ब्वारि आज तक कैकि नि आइ वे।’’


लोगों बै आपुणि ब्वारिक तारीफ सुण बेर रमियकि इज लै भौत खुशि है जनेर भै। ऊ ब्वारि कैं आपुणि चेलि है बेर लै भल माननेर भै। उकैं भल-भल खा्ण और पैरण हैं भा्ल-भा्ल लुकुड़ लै दिनेर भै। आपुणि तरफ बै रमिए इज ब्वारिक खूब थिताण-मिताण करनेर भै। रमी लै राधाक रूप-रंग और जवानी कैं देख बेर भौतै मायादार और मोहिल हई भै। ऊ आपुण दगड़ियों हैंती कौनेर लै भय कि राधा मेरि लिजी भौतै शगुनी  बन बेर ऐछ। यैक घर में आई बटि मेरि पी.डबलू.डी.कि नौकरी लै पक्की है गे।
रमिए इजकि और रमियकि बातों कैं सुण बेर गौंक और स्यैणियों कैं आपुणि ब्वारि-बौड़ियों कैं देख बेर नकि रीस जै औनेर भै। ऊं सोचनेर हाय कि दऽऽऽ रमिए कि दुल्हैणि जास सुघड़-सुंदर हमार ब्वारी लै हुना तो कस हुन...। हमार ब्वारी तो कई ल्वारा क जा चेलि, राधाक नङ बरोबरि लै नि हाय। न रंग-रूप में, न काम-धाम में और न सीप-सउर में...। क्याप्प हाइ कौ हमार ब्वारी...। औरै अनघड़, जंगली जा भ्यास...। मुसिभ्याकुड़ों जा कच कचान और घरौ-कुटी भुसि तमाखु जा खरखरान...। एकदम परहोश...। जां जानी वैं रै जानी। कामकि क्वे भलि बात बताई तो झिमौड़ जै चिपटि जानी...। उल्ट मुख लागनी...। एक बातक दस बात सुणै जानी...। हमार ब्वारी के कई- करयाक और रथ- बथाक जै के हाइ...। सब बे रथाक हाइ। के करण हय, फिर? सिर पड़ी हाइ... खपौड़-पड़ि रई। दऽऽ भा्ल ब्वारी सब भागल मिलनेर भै। हमर यस भाग कां...? रमिए ईजा!
यतुक में एक रधुलि दी नामकि सयाणि स्यैणिल, ऊं चुगलखोर स्यैणियों कैं निगुरि कनै झिड़क बेर नड़क्यै दी- ‘‘किलै रे! आ्ब यो गौं बै तुमार दा्ण-पाणि खतम है गई के? जो तुम रमियकि हुड़क्याणि जै ब्वारिक गुण गान कर बेर, आपुण ब्वारियों कि चुगली करण में लागि रौछा। ऊं तुमरि यौं कुचड़ैन और कुकैल बातों कैं सुणला जब-तुमूकैं दातुलल चिर द्याल, चिर। फिर देखिया-घर भितेर लै नि औण द्यालु गोठपन खेड़ि द्याल, फिर करनै रया यथांक-उथां।... कृ निमखण, घर उजाड़ बात।’’
रमिए इजा! तू लै इथां ऐ बेर भैट और ध्यानल सुण मेरि बात- ‘जो तू चहा-पाणि पिवै बेर इनरि फसकों में ऐ जैंछै नैं- देखिए भोल यौ स्यैणी त्यर घर बार इकौर कर बेर भलिकै टोटिल नि करला, तो तू म्यर नाम बदल दिए। अरे भौजी! यौं तो आपुण ब्वारियों परसाद आज नाति-नातिणियों वा्ल हैबेर राज करणई, तब यौं घर-उजाड़ स्यैणियों कैं ‘सब धान बाइस पसेरिक’ नजर औणई। पर त्यर के? बता धैं। तू नैं गू में नैं गया में। खालि पगली रछै इनरि हां में हां मिलै बेर...। यैल के होल त्यर? सोचो कभै त्वैल आपूं उज्याणि, आपुण च्यल-ब्वारिक उज्याणि चै बेर ? पार बाखइक  चनियक त्यर रमी है बेर द्वि साल बाद ब्या हौछ...। आ्ब देखो- भोल पाछी लगै चैत ऊ लै एक च्यलक बाब बण जा्ल। खालि अनमनी रै छै तू ब्वारिक रूप-रंग कैं देख बेर। रूप-रंग कैं चाटि खानी के? वंश-परंपरा और खान-दानक नाम चलौणी वालि ब्वारि जै नि हई तो के हइ? बता-के गलत कौणई मैं?... आ्ब यतुक बुढ़िय काव में एक नातिक लै मुख नि देखो तो के द्यख। नक झन मानिए वे भौजी तू लै, के पत्त बाद में पुठ पछिल गाइ देली जाणि...।  पर मैं तो यसै छुं- साफ कौ सुखी रौ। क्वे नक मानू भलै, भल मानू भलै- सांचि बुलाण में के डर?
‘‘भौजी! उसी कौंछा तो सब लगै-पड़ै बेर, आ्ब तुमर रमियक ब्या कैं लै तीन साल तो पुर हुण हुनाल...। पर मुकद्दर देखो, आजि तक तुमरि ब्वारिल क्वे संतान त छोड़ो एक मुसक पोथिर लै पैद कर बेर तुमरि गोदिम नि खित सक । आ्ब अघिल के और कौंलौ तो कौनै-कौनै कन्याराशि है जूंल, लेकिन नि कै बेर लै नि रै सकुंल। मेरि आदत पैंलिए बटि यसि छु।’’


‘‘हां, तो भौजी! देखि लिया तुम, एक दिन रमी बिचा्र कैं खानदानक नाम चलौणक लिजी दुसर ब्या तो करणै पड़ल...। जो ब्वारि आज तक सुनुक-घड़ लागणै तुमुकैं, ऊ कुछ दिन बाद माटक डव है जालि तथा जो ऐल तक लक्ष्मी है रै, ऊ बाद मेें अलक्षणि लागलि। यौ बांझ-ब्वारि अनजाणै में गा्व पड़ि गे तुमरि। भौजी! रमियकि कैं दुहर ब्याक ढाव देखो, पछां भौत देर है जालि। ज्वानिक दिन पालाक रूपैं जा खिसक जानी। बाद में खिसैनि है जालि। मैंल आपुण तरफ बै बतौण छी, बतै हालौ। आ्ब म्यर मन लै हल्क है गो। गोरूंक औणक टैम  है गो। आब जानू वे भौजी! कैै बेर रधुलि दी चड़म उठि जानै रै।
बस, फिर के छी, रमियकि इजल रधुलि दीक बातों कैं गांठ पाड़ि बेर दुसरै दिन पंडित ज्यू कैं घर बुलै ली। द्वि घंट पंडित ज्यू दगै गाणि- माणि करि बेर, रमियक ब्याक लगन अघिल हफ्त इतवाराक दिन सुझै दी। तिराई-तिराई तिर-तिर, निसाई-निसाई कुरौट जौ लगूनै, रमियकि मैल गौं-घरों में कै कैं के बासै नि लागण दी। गौं-घर तो छोड़ो, घर भितेरकि राधा कैं तक कानों-कान खबर नि लागि सकि कि के काव-विधान हुणई कनै। 
इतवारकि ब्याव मुख अन्यार पंडित ज्यू और रमी नई दुल्हैणि देवकी कैं चुपचाप लि बेर घर ऐ गाय। जरा नाममात्र शगुनाक द्वि-चार मंतर जा पढ़ि बेर, पंडितज्यूल धेई-भिटौइ करै बेर, देबकी कि सासुक आशीर्वाद- फलो-फूलो कनै दिवै बेर देवकी कैं राधा दगै मिलै बेर कय- भाऊ! यैक खुटां में लै ढोक दे। यौ तेरि सौत राधा छु। सौत दीदी बराबर हैंछ। आज बटी द्विए बैणी मिल बेर यौ घरक भल ढंग ढच्चर और कुशोबात धरिया। फिर पंडित ज्यूल रमियकि इज हैंती कय-‘‘जजमानी! तुम जस चांछिया उसै काम है पुजि गो। नई ब्वारि लौहण-भुगतण है जो, तुमरि मनोकामना पुरि है जो और भौत जल्दी तुमूकैं नातिक मुख देखण नसीब है जो।...आ्ब ल्याओ पैं धोतिक गांठ खोेलि बेर, मेरि दक्षिणा दि दियो। रमियौ ब्याक कारण एक हफ्त बटी मैं लै यसिकै उलझी बेर टंगटंगी रयूं, घर नि जा पाय। आब जानू पैं, आशीर्वाद।’’ 
‘पंडित ज्यू! लियो पैं यो दक्षिणा, नक झन मानिया, तुमरै सहारल यो शुभ काम यतुक जल्दी निबट गो ऐल.. और य लियो निसरौ पाणि द्विनरि बनै बेर बादि रै मैंल। बस, कानिम लटकै बेर न्है जाओ’- रमियकि इजल पंडित ज्यू कैं पैलाग कर बेर बिदा कर दी। 
पंडित ज्यूक आशीर्वाद जल्दी सुकार्तिल है बेर पैंलै महैण में फलीभूत है गे, देवकी आङ भारि है गइ। आ्ब जै बेर रमियकि मैक दिल में जरा संतोष जै आय। वील पैंली घरा ईष्ट देवों नाम ली, फिर हाताक आङवन कैं भलि कै पोछि बेर ब्वारिक महैणौ अंदाज लगै बेर गिणन शुरू करि दी। फिर मन मनै सोच कि अगर अदम बैशाख बटी लै ओदिल है हुनलि तो... तो लागै माघ या अदम माघ तक तो मैं नाति वालि हई जूंल। तब तक ठुलि बाछि लै कमन है जानी तो फिर म्यार नातिक दूदक लिजी क्वे कमी नी हनि। लालि लै बाखड़ी जालि सैद तब तक तो...। फिर उकैं ख्याल आइ कि रधुलि दी कैं एक बार भलिकै अङाव किट बेर धन्यबाद कौण छु, किलैकी यौ सब वीकै सिखाई संध्या छी। ऊ जै मैंकैं नि झकोरनी तो मैं तो सितिए रै जानी। जीऽ रै वे! रधुलि दी तू। आइ लै ऊ ब्वारिक असजिल दिनों में बाद में काम आलि। स्वै-बुढ़िया तो वी हइ सार गौं भरिक।
दुसरि तरफ जब बटी रमियल सौत ल्यै बेर राधाक ख्वार में ठाड़ करि दी तब बटि राधाक रूनै-रूनै औरै हाल हई भै। वील तब बटि ठीक-ठाक खा्ण-पिण लै छोड़ि हाल। उकैं दौंकार, हंकार और जलन जै पड़ि रनेर भै हर घड़ि। वीक भितेर हजारों-लाखों ध्यूड़ों कि बरयात जै लागि रूनेर हइ। ऊ ध्यूड़ उकैं काटनेर, बुकूनेर, चटकूनेर और धदोड़नेर हाय। यस करते-करते ऊं ध्यूड़ौंल उकैं बुकै-बुकै बेर एक ठुल जौ चलता -फिरता ‘ध्यूड़कोट’ बनै दी। ऊ ध्यूड़कोट में आब हर रोज अलग-अलग प्रकाराक मर्मातक, खतरनाक, जहरिल सांप-सपोले सौती-डाह फनों कैं फनफनै बेर राधाक सौती-डाहक बिश्वास कैं और लै मजबूत बनै दिनेर हाय कि एक दिन राधा जरूर देबकी कैं मार बेर आपुण लुटी-पिटी सुहाग कैं पाण में अवश्य सफल है जालि। यैक लिजी राधा चैबीसौं घड़ि नई-नई चाल सोचते रैंछि और आपुण भितेरक ध्यूड़कोट कैं बढ़ौनै और सजौनै रैंछि। कभै यो लै सोचछी कि कैं यो ध्यूड़कोट मैंकणि तो नि खै जा्ल? खैर जे लै होल, देखी जा्ल। मैं तो एक अभिशप्त बांझ स्यैणि छु जैकैं समाज में जीणक के अधिकार न्हैं। मरि गयौ तो यौ लै भलै हय। नि मरौ तो फिर ऊ लै मरीए जस हय। देबकी, जो रात-दिन सौत बनि बेर मेरि छाति में मूंग दलण लागि रै, हर हालत में उकैं मरणै पड़ल। सौती-डाह तो बलिदान मागूं। या तू या मैं। मैं तो आदुक पैंलिए मरि गोछी, जब दुनी वालों ल मैंकैं ‘बांझ’ कौ और पुर तब मरूं जब म्यार ख्वारम सौत भैटै दे। आ्ब बांकि के रय, सिर्फ यौ ध्यूड़कोट। हां,हां, सिर्फ यौ ‘ध्यूड़कोट’।
जो ध्यूड़कोट कैं कभै म्यर मर्द मेरि दिलकि राणि कै बेर लट्टू है जांछी और सासु मेरि सुनुक टुकुड़ कै बेर मेरि तारीफ करते नि थकछी, ऊ ब्वारि आज सुद्दै ह्याव है बेर माटक डव-एक ध्यूड़कोट है गे। आ्ब समझ में ऐ गो कि एक स्यैणिक जीवन में एक संतानक के महत्व हुं  कै बेर। हमार शास्त्रों में नारीक खालि झुठि तारीफ कर बेर लिखी रौ कि नारी तुम केवल श्र(ा हो, विश्वास हो, करूणा हो... ना जाणी के, के। अगर लिखणी वाल केवल द्वि-तीन शब्द लिख दिनौ कि ‘नारी तू बांझ है’ या ‘नारी तू माँ है’ या फिर जादाई कडुवाहट दिखौण चाना तो कै सकछी कि ‘नारी तू सौत है’ त्यर भितेर जहरक कहर भरी छु। 
तो राधाक जहरक कहर देबकीक जीवन में तब टुटि बेर बरस, जब ऊ पूसक महैणक आंखिरी दिनों में आपुण नवजात भौ दिगै स्वैल में छी। राधाल देबकी कैं जहर खवै बेर मारणकि पुरि पलानिंग भौत पैंलिए बटि करि हालछी। वीक लिजी राधाल एक ‘फूलप्रुफ प्रोग्राम’ निर्धारित करी हय। द्वि-तीन किसमाक देशी बिदेशी जहर- काऊ धतुर, मुस मारनी दवा,  नुवान आदि कीटनाशकोंक इंतजाम करी हय। राधाक इराद केवल देबकी कैं मार बेर आपुण सुहाग, सासुक प्यार और सामाजिक रिश्तों कें सुरक्षित करनक हय। वीकि इच्छा देबकीक मरण बाद भौ कैं खुद पालणकि हइ। जसी देबकी च्यल कृष्ण कैं यशोदाल पालौ। राधाक भौ कैं पालणक दुसर उद्देश्य- भौक ओट में आपुण जनमजात बांझपन कैं ढकौण, लुकौण लै हय। यसी कनै राधाल भौत सोच समझ बेर टाइम और दिन बार निर्धारित करी हय। बाहरी दिखावा और देबकीक बिश्वास जितणक लिजी राधा देबकीक भौत सेवा करण में लागि रूनेर भै। जैक वील रमी और सासुक बिश्वास लै ऊ पर पक्क हुणै जाणय।
आज देबकीक स्वैल में सतूं दिन हय। राधाल लै यौ दिन देबकी लिजी आंखरी दिन तय करी हय। राधा रात्तिए बटि भौत खुशि है बेर, रसोई कामकि खुरि-बुरि करण में लागी हइ। ह्यौनाक दिन हाय- सबै लोग रातिए खै पी बेर अपुण काम-धामों में न्है जनेर हाय। ऊ दिन लै रमी रोजकि चारि आपुण काम में न्है गोय और सासु लै गोरू-बाकार खोलि बेर ग्वाव न्है गे। अड़ोस-पड़ोसाक लै सब लोग कामों में नसि गाय। चारों ओर सुनसानी जै है गइ तो राधाल देवकी थें कय- तू पैंली भौ कैं धौ कनै दूद पिवै बेर सिवै दे, फिर मैं त्यार लिजी र्वाट-साग ल्यूंल, आरामल खै बेर तू लै भौ दिगै से जाए। चार र्वाटां बराबर मडुवक पिसू में द्वि मुस मारणी जहराक पुड़ियों कैं भली कै ओलि बेर उमें एक डइ गूड़कि लै मिलै दी ताकि जहर कड़ू नि लागो। फिर राधाल उ जहर मिलाई मडुवक पिसुवक चार मोटी लेसू जा र्वाट बनै बेर देवकी कैं साग दिगै दि दी। साथ में एक दूदक गिलास लै थमै दी। वीक बाद कै ली दी कि यौं सब र्वाट गरम-गरम खै ल्हे, तुकैं ताकत आलि। मैं रसोई में दाव-भात खै बेर औनू। तू खा तब तक, बाद में दूद पी लिए। बचाए झन। 


राधाक चुल-भान कर बेर औण तक देबकी ल तीन र्वाट खै हाल और एक र्वट जो वील नि खै सक, उकैं एक पलास्टिकक थैल में धरि बेर आपुण सिराण दबै बेर से गइ। उकैं कुछ- कुछ रिङै, बेहोशी और झमड़ताव जै पड़न शुरू है गे। उतुक में राधा जहरक कें असर देखां है गे और देबकी कैं आवाज दी लेकिन तब तक देबकी परहोश है गेइ। तब राधाल आपुण गवै माउ बटि ‘कनगाड़’ निकालि बेर देबकीक हात में जोरल चुभै दी ताकि यस लागौ कि यकैं क्वे स्यापल चटकै दे, जैक जहरल यो मरि गे। यतुक काम करि बेर राधा आपुण गौंसाउपन बाछों कैं घा-पाणि दिहैं जानै रै। राधा गौंसाउ हैं जान-जानै सोचणै कि चलो आज यो भौत दिनोंक अलझ्याटक काम लै पुर है गो। यौ कानौ झिकड़ आ्ब मेरि जिंदगी बटि हमेशा लिजी दूर है गो । हे भगवान! तुमूल मेरि सुणि हैछ। अघिल लै मेरि लाज धरिया यसीकै। देबकी बिचारिक सदगति करि दिया। उ मेरि दुश्मण जै के छी, बिचारि एक सिदसादि स्यैणि छी। के करछी पैं सौत बनि बेर वी ऐ मेरि जिंदगी में। म्यार हातोंल मरण हुनल वील। बिचारि अरामल मरि गे। उसी सब काम मेरि योजनाक अनुसार भलिकै निपटि गो। बस, आ्ब जरा रौयाट-बौयाट करि बेर देबकीक डानि कैं शमशान घाट लिजाणक काम रैगो। भगवान चालौ यौ लै हई जा्ल। कफन-दफन में जादा देर जै के लागैं। म्यार ककी सौर खीम सिंह और जिठाण प्रताप सिंह ज्यू यास कामों में परफैक्ट हाय। एक कफन लौण हैं दौड़ल, दुसर डानि/ झांजि बणूनढूण में जुट जा्ल। मिनटों में यतुक बड़ी डानि सजै बेर तैयार करि दिनी कि मुर्द आफी कौन फैजां कि हिटो आ्ब देर नि करो। बोलो-‘राम नाम सत है।’
गौंसाउ बै बाछों कैं घा-पात दी और मोव-कच्यार निकालि बेर जस्सै राधा आपुण चैंथर में पुजि उस्सै वील चिचाट पाड़ि बेर- ओ ज्यू! ओ ज्यू!! कनै पुरि बाखइ गजै दी। द्वि बुढ़ि स्यैणी जो नानतिनोंक ग्वाव है राइ- राधाक चिल्लाट सुणि बेर अलबलानै भ्यार ऐ बेर कौण लाग- ओ राधा! के हौ? किलै धर रौ त्वील असमान ख्वार में? राधाल चिल्लानै कय- ओ ज्यू! स्याप-स्याप कनै हातक इशार तिराई तरफ कुरिक झालक उज्याणि करि बेर कय- ‘ओ ज्यू! यतुक का्वपट - डङार जौ एक लंब स्याप अल्लै हमार चाख बटि निकल बेर, तौ तिराइ बुजां में न्है गो हो। स्यैणी और नानतिनोंक कां छु, कां छु? कौण पर राधाल खुदै कै दी- किलै यां भै रौछौ के ? भाजि गो। जोगि और स्यापाक क्वे घर जे के हनी।
यौ तो राधाक मनक एक काल्पनिक बनाई स्याप हय। वीक योजनाक लोगों कैं भैम में डालणक एक षडयंत्रक हिस्स हय। स्यापक भैम लोगोंक दिल में भै गोय...। अघिलकि योजना राधाल यौ प्रकार सैट करी हई कि उ दौड़न-दौड़नै आपुण चाखाक देबकीक स्वैल वा्ल खन में गई और जोर- जोरल देबकी कैं अवाज दिणै, हलकूणै, फिर भ्यार ऐ बेर बुढ़ि स्यैणियों हैंती कय - ओ ज्यू! भितेर हिटो धैं, हमरि देबकी कैं के है गो जाणि, उ बुलाण नि रइ। मेरि अवाजल भौ लै उठ गो। आओ धैं, मैं भौ कैं थामनू तुम गौंत छिड़क देला सबै जाणि देबकीक कम्र में पुजि गाय। देबकी कैं अवाज दी लेकिन उ कां बै बुलांछी। उ तो मरि गइ और बुढ़ी स्यैणियोंल लै देबकीक मुखक झाग और निल पड़ी हात-खुटां कैं देखि बेर कै दी कि यौ तो मरि गै- यकैं स्यापल चटकै हैलौ सैद।
फिर के छी भौ कैं काखि में धरि-धरिए राधाल जोर-जोरकि टुक्याव जै मारि बेर रौयाट-बौयाटल औरी हल्ल कर दी। वीक हल्ल सुणि बेर गौंक स्यैणी-मैंस राधाक घर ‘के हौ-के हौ? कनै जा्म हुण फैगाइ। उतुक में एक सयाणि स्यैणिल कय-‘मुर्द कैं भ्यार पराव बिछै बेर, दक्षिण हैं मुनव कर बेर धरो रे। के छूत-छात नि हुनि, हात लगाओ। मरी मनखीक मा्ट तिथाण तो लिजाणै पड़ल क्याप। गौंत छिड़क लिया बाद में। ठाकुर खीम सिंह ज्यू दगै परिया, तरिया, नरिया लै ऐ गाय। ठाकुर ज्यूल देबकी हात में स्यापक काटी द्वि दांतोंक निशाण और मुख बै बगी झाग देखि बेर परी हाति कय- जा दौड़ बेर कफन-दफनक समान लि आ। तरिया तू रामी कैं बुलै बेर जल्दी ल्या। एक लौंड पंडित ज्यू कैं बुलौण हैं लगाई गै और द्वि लौंडों कैं बांस काटण हैं दौड़ै दी। फिर अगास हैं चै बेर कय- ‘‘यो पूसक महैणक लै के भरौस न्हैं। एक तरफ बादवोंक यस घड़घड़ाट पड़ि रौ और दुसरि तरफ यतुक ठंडी निगुरि हाड़ कपौंड़ी हाव...। टैम लै एक डेड़ बाजियक हई गो हुनल सैद। कैं देर नि है जो...। दिन छन चिता में आग लाग जाण चैं। थ्वाड़ देर में रूनै-धूनै रमी लै ऐ गोइ। ठाकुर ज्यूल कय-‘यार च्यला रमिया! चोट तो तुकैं विधिल भौत ठुलि मार हली। पर के करछै यौ जनम-मरण मनखियक हात नि हय। चुप है जा और भौक मुखड़ देख। जरा देर में पंडित ज्यू लै ऐ गाय। उनार पिछाड़ि-पिछाड़ि कफन और बांस वा्ल लौंड लै ऐ गाय। पंडित ज्यूल कय-ठाकुर सैप!  अगर तीन बाजी तक लै डानि यां बै उठि जाली तो काम है जा्ल। पांच बाजी तक दिन रौं आजकल। बस, दिन छनै चिता में आग लागि जानौ तो दाह-संस्कारकि रशम पुरि है सकेंछि लेकिन यौ मौसमक के भरौस नि लागणय। यौ तो अन्यारपट हुनै जाणौ। जे हौं पैं आ्ब। जरा जल्दी करो हो। तीन बाजणी छन। लियो पंडित ज्यू! डानि तैयार। चढ़ाओ मुर्द कैं और चलो- राम नाम सत्त है।
पंडित ज्यूल शव लिजाणी लौंडों हैं कय- ‘‘जरा लम-लम लाप धरो रे, लकाड़ लिजाणी लौंड-मौंड अघिल ल्है जाओ। शव औण तक चिता तैयार है जाण चैं। यौ द्यौ लै उरियांे फैगो...। ’’
कठयोर देबकी डानि कैं लि बेर जसै का्न दबौणी दुबटी तैं पुजा तो उसै द्यौल लै कय यौ छु। आज नि बरसौ तो कभै नि बरसो...। हाव दगै द्यौक औरै तड़तड़ाट पड़ि गोय। पंडित ज्यूल ठाकुर खीम सिंह हैं कय- बस, ठाकुर सैप! अब आज के नि है सकन, यो द्यो रूकणी न्हंै हो। यौ तो बढ़ते जाणौ। है सकूं रात में ह्यों लै पड़ि जौ...। ठाकुर, यार म्यर तो बुढ़ पराण हय, अब तिथाण नि ऐ सकुंल। आपूं लोग नदी बै जरा दूर हट बेर भिजी लकाड़ोंकि चिता लगै बेर डानि कैं वीक माथ धरि बेर द्वि-चार लकाड़ांल दबै दिया और सब लोग आपुण घरों हैं ऐ जया। मौसम भोल तलक ठीक है जालौ तो रत्तै सात-आठ बाजी तक और सुकी लकाड़ लि बेर ऐ जया। मैं तो जानू ऐल, भोल देखुंल।
जस पंडित ज्यूल बताई हय, उसै कर बेर ठाकुर खीम सिंह घर हैं भाजि आई। घर ऐ बेर रमियल थुरथुरानै आपुणि इज हंै आगक क्वैल मांगि बेर हात डमाई, गौंत छिड़क और भिजी लुकुड़ बदल बेर, अग्याटक पास भै बेर इज कैं सब बात बतै दी। फिर भौक बारम पुछ। इजल कय-‘‘च्यला! भौ कैं दूद पिवै बेर अल्लै राधाल सिवै राखो आपुण दिगै। च्यला! जे करौ, ठीक करौ, आ्ब यास हालतों में चिता कैं आग कसी लागछी? मौसम तो भौतै खराब है गो। रात में ह्यौं जरूर पड़ल सैद। आसार यसै लागणई।’’ इजल द्वि लकाड़ अग्याटम और लगै दी। 
घर में शोकक कारण एक द्वि-दिन तौव नि लागनेर हय चुल में। यैक लिजी पड़ोसियोंक देई चहा-पाणि और खा्ण-पिण खै बेर, रमी और वीक मै सितणकि तैयारी में लागी हाय। राधा दुसर खन में भौ दिगै सिती हइ। आज वील आपुणि मरी सौत देबकी लिजी एक बखतक लङण करी हय। सितण है पैंली रमियल भ्यार देखौ तो ह्यों पड़न लै रय। रमियल आपुणि हज हैंती कय- ‘‘इजा! लकाड़ बुझै बेर यौ अग्याटाक क्वैल भौ वाल कम्र में धरि औनू। कम्र गरम रौल रात भर।’’ और फिर गुदड़ि-खातड़ि ढकी बेर द्विए मै-च्याल गुड़िमुड़ि कनै से गाय। भ्यार ह्यों पड़ते रय रात भर...।
दुसरि तरफ... वी रातक दुसार पहरकि आंखिरी घड़ियों में ह्योंनक महैणक ह्यौं पड़ी फूल-फटङ रात में, एक ज्वान स्यैणि आपुण गौंक तिथाण बटी लाल कफनक गाथ पैरि बेर, आपुणै चिता बटि उपजी क्वे देवदूती जै बनि, आपुणै डानिक बांसकि जांठि टेकि लोटते-संभलते, नौराट-कौराट पाड़नै, जसी-तसी रमियक घरक चैंथरक भिड़म आपुण उखड़ी-बिखरी सांसों कैं इकबट्यौणक लिजी भै गइ। थुरथुर कामनै, उघड़ी शरीर कैं ढकनै, आपुण जीक तराण कैं समेटनै वील एक भरपूर नजरल, उ ह्यों पड़ी सुकिलपट जुन्याइ रात में, आपुण घर-बाखइ कैं देखि बेर आपुण ईष्टक नाम लि बेर-हात जोड़ दी। हे ईष्टा! भल करिया हो। फिर उठि बेर आपुण घराक द्वारों कैं बांसकि जांठिल द्वि-तीन फ्यार खट-खटै बेर, जाड़ल थरथरानि अवाज में द्वार खोलणै लिजी कय-‘‘ओ ज्यू! द्वार खोल दियो हो। मैं ऐ गयूं, मैंकैं भितेर औण दियो। मैं जाड़ल मर गयूं...।’’
घरक भितेर जरा खड़बड़, धमधम जै हइ, फिर सुनसानी... द्वार कैलै नि खोल। देवकील  यो बार जरा और जोरल द्वार खटखटाई और द्वारक साङल लै खड़काई, तब जै बेर रमियकि इजल मुहरिक द्वार खोल बेर जोरल डर बेर जै कय- ‘द्वार नि खोेलनी। किहैं खोलूं द्वार? तू जो लै छै छल-छिद्दर, जां बै ऐछै-वैं न्है जा। यतुक कै बेर एक जगी लाकड़क मुछयाव आंगन में छटकै दी।
‘ओ ज्यू! मैं क्वे छल-छिद्दर न्हैं वे। मैं छुं तुमरि ब्वारि, देबकी। देबकी छु मैं। यतुक देर में पड़ोसी ठाकुर खीम सिंह और प्रताप लै उठि बेर भ्यार ऐ ग्याय और रमी लै उठि बेर मै दगै भ्यार आंगण में ऐ गोय। तब ठाकुर खीम सिंह ज्यूल रमी और वीकि मैं कैं नकि भैं नड़क्यै बेर कय-‘अरे! तुमर दिमाग खराब है गो के ? बेकूफो , ज्यूनि ब्वारि देबकी तुमूकैं भूत-पिचाश, छल -छिद्दर लागैं रै के? रमिया ! जा फटाफट यैक लुकुड़ कामव और अग्याट जगै बेर ल्या। और राधा-जो आश्वर्य चकित है बेर, खिड़की बै देबकी कैं देखण लै रइ और सोचण लै रइ कि यौ मरी स्याप कैं उल्ट म्यर गव तो नि पड़ि जाल? तब रमिए इजल राधा हैं कय- ‘‘महारानी! तू लै करि ले के, जा जल्दी एक लोटी भरि बेर आद और काइ मर्च कुटि बेर चहा बनै ल्या। जल्दी बनै ल्या, वैं चिपकिए झन रै जै।’’ राधाक चहा लौण तक दिश खुलि गइ। आज अगास लै साफ खरयाई जै है गोय। रातक ह्यों उसीकै चमकण लै रय। पूसकि हाव में ठंडक कुछ कम है गेइ। लेकिन देबकीक जाड़ कमव ढकी बेर लै कम नि हय। उ कपकपी बेर सिसाट जै पाड़न रइ। उ आजि तक भलि कै बुलाणकि हालत में नि ऐ सकि।
ठाकुर खीम सिंह ज्यूल देवकीक नाजुक हालत देखि बेर कय- ले ब्वारी! जरा इथां कनै खिसक बेर छाव कनै भैट। मैं एक चुकुटि भभूत नार सिंह ज्यूक नामक लगै दिनू, फिर गरम-गरम चहा-बिस्कुट खै बेर, टुप्प कनै ढकी-ढुकी बेर भितेर से जा। रमिया च्यला! तू आज कैं झन जै- यकैं खवै-पिवै, देखनै रए। मैं लै जरा झाड़ि-पिशाब जै औनू। चलो रे सब, भीड़ नि करो, आपुण घरों हैं जाओ। ठाकुर सैपल सबों कैं मा्ख जै हकै बेर भजै दी।
करीब सात बाजी पंडित ज्यू लै ‘जय शिव शंभू’ कनै जाड़ल अरड़ी बेर भितेर ऐ बेर अग्याट थैं भै गाय और फिर रमी हैंती कय- ‘‘जजमान! यौ मैं के सुणनयंू हो! चलो भल भय हो-तुमर घर-बार फिर बसि गो। ऐल कां छू देबकी? से रैछो? चलो सितण दियो। जरा तड़ि में तराण ऐ जाल। रात भरि ह्यों में दबी रइ। ह्यों में दबणक वीलै तो देबकीक जहर उतरौ। कौनी- जहर कैं जहर मारूं, वी बात भै। भगवान जे करूं भलै करूं। द्यो जै नि लागनौ तो हमूल यकैं भड़यै दिण छी। फिर कां बै देखना ऐल यकैं? ठाकुर, उसी देखो धैं, कतुक दिलदार और मायादार स्यैणि भै तौ देबकी। यतुक घुन-घुना तक ह्यों पड़ी, ह्यौनकि ठंड आदु रातम भिजी कफन ओढ़ बेर तिथाण बटी इकलै घर पुजि गे तौ। कतुक हिम्मत हइ तै में। यस तो न कभै सुण, न कभै द्यख। एकदम अणहोति का्व हई भै। धन छु यौ स्यैणि हैं। यौ तो साक्षात देवीक अवतार छु भै।’’
रमियल झट पंडित ज्यूक खुटां में हात लगै बेर कय-‘‘बस, गुरू! यौ सब भगवानकि माया छु। म्यर घरबार उजड़न है बचि गो। हे भगवान! हे ईष्टा! दैण है जाया हो। मेरि जड़ जमै दिया यौ गौं में। म्यार पुरखोंक सत हुनल जो मेरि स्यैणि तिथाण-घाट बटि घर ऐगे। तबै कौनी-जाको राखे साईयां...।’’
यतुकै में ठाकुर खीम सिंह और परी द्विए झाणि हातों में गरम चहा कितलि और एक ठुल थकुल में र्वाट-साग दै लि बेर ऐ पुज। ले काखी यौं गरम र्वाट-साग ब्वारि कैं उठते ही खवै दिए और चहा सबौं लिजी छु। पंडित ज्यू कैं लै पिवै दियो।  मैं थोड़ी देर बाद औनू- कै बेर परी न्है गोय।
पौरक स्वैल वाल खन बटि भौ कि रूणकि अवाज आते ही रमियकि मै उठि बेर वां न्है गइ, तो उ है बेर पैंली झट कनै देबकी भौ कैं आपुणि छाति पर लगै दूद पिवौण लागै।
पंडित ज्यूल रमियकि मै हैंती कय- ‘देबकी कैं लै यौ गरम-गरम र्वाट-साग खाणै लिजी दि दियो। फिर कुछ बात लै पुछण छें देबकी हैंती, छाव है जालि जब। कस हो- ठाकुर सैप?’
‘‘होइ, होइ! यई मैं लै सोचण छी। यौं सब परिवार वालोंक बीचम पुछण ठीक रौल सैद। बाद में और लोग ऐ जा्ल- भीड़ है जालि। जादा गबगबाट में ठीक नि रौन।’’
चलो, स्वैल वाल खन मजि ऐ जाओ सब झणि, मैंल गौंत छिड़क हैलो। रमिया च्यला, जरा राधा कैं लै बुलै ल्या तो। रमिए इजल पंडित ज्यू हैं पुछ-‘‘पंडित ज्यू उ कफनक के करण हय? गोठक जाव पन धरी छु...। खेड़ि दिण हय काना बुजम या जलै दिण हय? बताओ धैं।’’
जजमानी! यैक विधि-विधान लै अलगै हुनी। कफन कैं तो पक्क दफन करण पड़ौं। यकैं घर में धरियक तो भौत ऐब लागूूं- यौ तो दोष हुं । वैं तिथाण मजि लिजै बेर चिता लगूण पड़ौं। थोड़ी क्रिया करम लै निभौण पड़ौं। यौ आजै करण पड़ल हो। किलै हो ठाकुर सैप! के गलत कौणई मैं? पंडित ज्यूल कुछ सुणी, कुछ आपणि तरफ बै जोड़-तोड़ कर बेर जजमानीक शंका-समाधान कर दी।


यतुक में स्वैल वाल खनक दरौज में राधाल ठाड़ हे बेर कय- ‘‘ज्यू! मैं द्वि-चार पुल हरी घाक काटि बेर लि औनू। बेली बै गोरू-बा्छ भुकै छैं। सुकी घा में मुख नि लगूणाय, हम यसिकै रौयाट-बौयाट में रै गाय।’’
ठाकुर सैपल कय-‘राधा! एक द्वि बात पुछण छी। जरा रूक जा तो। त्वील उ स्याप आपण आँखोंल देखौ के? कतन ठुल छी। देबकी कैं वीलै काट हुनेलो के?’ 
‘‘होय पंै, मैंलै तो देखौ। यतुक लंब, का्व-डङार हमार चाख बटि भ्यार हैं सरसरानै आ और उ कुरिक बुजम जै बेर अलोप है गोय।’’ राधाल पुर हाव-भाव बतै बेर फिर कय- ‘हाइ! तुमूकैं परतीत नि औणय तो पल कुड़ाक सासु लोगों हैं पुछा,  नानतिनौ हैं पुछो।’’
ऊं तो कौणई हमूल क्वे स्याप नि द्यख और यौ देबकी लै मैंकैं स्यापल नि का्ट कौणै। अगर स्याप काटनौ तौ मैंकें पत्त तो चलन कौणै। सई बात छु नैं राधा? ठाकुर सैपल जरा तेज नजरल राधा कैं द्यख।
झुठि कौणै यौ देबकी। यौ कसिक देखनि स्याप कैं? यौ तो पैंलिए मरि गेछि, कैं मरी मनखी लै...। राधा कैं झट कनै आपुणि गलतिक एहसास है गोय कि मेरि झुठि पकड़ी गै कै बेर। उ भ्यार हैं जान-जानै कै गै -‘‘छोड़ो कौ सौर ज्यू, तुम अणकसै-क्याप-क्याप जा बात पुछण छा, मैं तो जाणयूं। बांकि तौ देबकी थैं पुछ लियो।’’
देबकील राधाक चार लेसु र्वाटांैकि कहानि, जमें बै तीन खाई, एक नि खाइ और उकैं पलास्टिक थैलि में सिराण दबूणकि बात लै बतै दी। र्वाट खै बेर बेहोश हुणकि बात... फिर शमशान में होश ऐ बेर, ह्यों पड़ी रातम कफन ओढ़ बेर घर वापस औणकि सब बात बतै दी।
सिराण दबाई एक बासि र्वट, रामबांसक कानाक भूड़म खेड़ी गुदड़िक भितेर मिल गोय। उकैं कुकुर कैं खिलाई गय तो कुकुर बिचार लै 5-10 मिनट में मरि गोय। सबौं कैं पत्त चल गोय कि राधाल आपुणि सौत देबकी कैं जहर खवै बेर मारौ कै। भले ही देबकी बिचारि आपण भागल बचि बेर, तिथाण बटि घर ऐ गइ।



यौं सब बातोंकि भनक लागि बेर, राधाल अनुमान लगै हाल कि आ्ब म्यर बचण मुसकिल छु। पुलिस, पटवारि, जेल जाणकि बदनामी है बेर भल छु कि आपुणै हातौंल फांसि लगै बेर मरी जौ। उसी यौ काम तो मैंल उ दिनै कर दिण चैंछी जै दिन म्यर मैंस दुसर ब्या कर बेर ल्याछी। खालि मैं आपुण सौतीडाहक ध्यूड़कोट कैं बढ़ौनै और सजूणै रय। आंखिर के मिल...? वी धणियांक तीन पात। चलो, यै सही...। कौंछा जब तो मैंल आपुण ‘सौती धर्म’ निभौण में क्वे कमी नि करि। सबै सौती कुचक्र और चाल जा्ण-बुझ बेर ईमानदारिल चलाई...। देबकी कैं तिथाण तक लै पुजा... तब लै उ नि मरि सकि...! कफन पैर बेर घर ऐ गे... तो म्यर के दोष..., वीकै दिन पुर नि हई हुनाल। देबकी! भलि हैरै वे! मेरि उमर लै तुकैं लै जौ...कै बेर, राधाल आपण कमर बादी ज्यौड़ खोलौ, आपुण गावम ज्यौड़क फंद लगै बेर बांजक बोटम लटक गेइ। आंखिर में राधाक सौतीडाह, जैल वीक जिंदगी में एक ध्यूड़कोट बनै राखछी- आज खतम है गोछी।• 
‘पहरू’ कुमाउनी पत्रिका जनवरी २०२१ अंक बटी साभार 

टिप्पणियाँ

लोकप्रिय पोस्ट

कुमाउनी जनगीत : उत्तराखंड मेरी मातृभूमि , मातृभूमी मेरी पितृभूमि

अमेरिका में भी उत्तराखंड की ‘ऐपण कला’ बनाती हैं डॉ. चन्दा पन्त त्रिवेदी

बिहार की विश्वप्रसिद्ध ‘मधुबनी’ पेंटिंग के साथ उत्तराखंड की ‘ऐपण’ कला को नया आयाम दे रही हैं जया डौर्बी

कुमाउनी शगुनआँखर गीत

कुमाउनी भाषा में इस वर्ष की आठ लेखन पुरस्कार योजनाएं

कुमाउनी भाषा में लेखी किताब और उना्र लेखक

खसकुरा (पुरानी पहाड़ी) शब्दकोश : 'यूनेस्को' से सहायता प्राप्त कुमाउनी शब्दकोश

सुमित्रानंदन पंत ज्यूकि 1938 में छपी कुमाउनी कबिता ‘बुरूंश’

दूर गौं में रूणी हेमा जोशी कि ऐपण कला

‘मीनाकृति: द ऐपण प्रोजेक्ट’ द्वारा ऐपण कला कैं नईं पछयाण दिणै मीनाक्षी खाती