ललित तुलेरा
उप संपादक - ‘पहरू’ कुमाउनी पत्रिका
मो.-7055574602
य सांचि छु कि उत्तराखंडाक द्वि लोकप्रिय भाषा ‘गढ़वाली’ और ‘कुमाउनी’ में पिछाड़ि सैकड़ों सालों में पद्य साहित्य में अथ्था काम है गो, य काम उरातार चलि रौ। रचनाकार इन भाषाओंक उत्थानै लिजी कयेक ना्न-ठुल कोशिशों में जुट रई। एक यसै किसमक इन द्विए भाषाओं कें एक दगै इकट्ठ रूप में सजूण-सवारणक ठुल कोशिश छु ‘बिनसिरि’। गढ़वाली शब्द बिनसिरिक कुमाउनी अर्थ छु - ‘रत्तैब्याण’। ‘गढ़वाली खंड’ और ‘कुमाउनी खंड’ में बांटी ‘बिनसिरि’ में इन द्विए भाषाओंक 330 रचनाकारोंक कविता एक दगै मिलनी। इमें पुरा्ण पीढ़ीक सयाण रचनाकारों बटी ऐलक बखत में लेखण लागी नई पीढ़ीक रचनाकारोंक रचना शामिल छन। ‘गढ़वाली खंड’ में टोटल 274 रचनाकारों रचना मिलनी जनूमें 67 कवियित्री शामिल छन। ‘कुमाउनी खंड’ में टोटल 56 रचनाकारोंक रचना मिलनी जनूमें 11 कवियित्री शामिल छन। हरेक रचनाकारक एक कविता दगै वीक पत्त और संपर्क लै दिई जैरौ ताकि एक संदर्भ ग्रंथक रूप में देखी जै सको।
‘बिनसिरि’ किताबक आवरण ‘अतुल गुंसाई ‘जाखी द्वारा तैयार करी छु। य किताबक संकलन में मधतगार रमेश हितैषी, संतोष जोशी, गोविंदराम पोखरियाल, अनोप नेगी ‘खुदेड़’ आदि रचनाकारोंक मिली छु। ‘बिनसिरि’ में लोक बै जुड़ी कविताओं बटि पहाड़, प्रकृति, पीड़, खुशी, हास्य, कोरोना आदि तमाम बिषय बिमर्श वालि कविता मिलनी।
कुलमिलै बेर य कई जै सकी कि ‘बिनसिरि’ गढ़वाली व कुमाउनी भाषाओं उत्थान में इनूकैं सजूण-सवारण अघिल बढून और इन द्विए भाषाओं क ताकत कैं समाजक सामणि ल्यूणकि ऐल तकक अलगै किसमक प्रयास छु। य आश करी जै सकी कि ‘बिनसिरि’ गढ़वाली और कुमाउनी भाषाक लिजी हमर समाज में भाषाओंक बिकासै दगै मोह लै पैद करल। •
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