कुमाउनी किलै पढ़न-लेखन चैं?


डॉ. शेर सिंह बिष्ट 
से.नि. प्राध्यापकः हिंदी विभाग 
कुमाऊँ वि.वि.परिसर, अल्मोड़ा
कुमाउनीयोंकि  असल मातृभाषा कुमाउनी छु। चंद शासन काल में कुमाउनी याँकि राजभाषा लै छी। येक प्रमाण वी बखता्क ताम्रपत्र और सरकारि अभिलेख छन। सरकारि अभिलेखोंक लेख्वार जादातर संस्कृता्क जानकार पंडित लोग हुँछी, ये लिजी वी बखतकि कुमाउनी भाषा संस्कृतनिष्ठ कुमाउँनी छु। चंद राजोंलि कुमाउँनी कैं भौत मान-सम्मान दे।
इतिहास यो बातक गवाह छु कि रा्ज लोग आते रूनी और जाते रूनी। शासन-तंत्र लै बदलते रूँछ, पर भाषा आसानिक साथ न बदलनि। कुमाऊँकि अगर बात करनू तो जब  बटि कुमाऊँ में बसासत शुरू भै हुनेलि, तबै बटि कुमाउँनी लै प्रचलन में ऐ हुनेलि। किलैकी क्वे लै मानव समाज बिन भाषाक न है सकन। 
कुमाउँनिक मूलरूप याँक शिलपकारोंकि बोलि-भा्ष में मौजूद छु। बाद में जाँ-जाँ बै, जो-जो जातिक लोग आते रई, उनरि भाषाक शब्द लै वीमें जुड़ते गई। योई कारण छु कि कुमाउँनी में एक अर्थकि लिजी एक है जादा समानार्थी शब्द पाई जानी। जसिक ‘मक्का’ कैं कती ‘घ्वग’ कूनी, तो कती ‘काकुनि’ और कती ‘जुन्या्ल’। या्स सैकड़ों शब्द छन। कई राजनीतिक और सांस्कृतिक कारणोंलि भारता्क अनेक राज्यों, जसिक- राजस्थान, गुजरात, महाराष्ट्र, मध्यप्रदेश या उत्तरप्रदेशा्क मैदानी इलाकों बै जो लै लोग पहाड़ में ऐबेर बसीं, उं आपण दगा्ड़ आपणि बोलि-भा्ष लै लायीं। योई कारण छु कुमाउँनी मंे इन राज्योंकि बोलि-भाषा्क लै सैकड़ों शब्द पाई जानी। याँ तक कि अहिन्दी भाषी राज्योंकि भाषाक लै काफि शब्द कुमाउँनी में मिलनी। येक कारण यो छु कि दक्षिण भारता्क भौत लोग, साधु-सन्यासी, तीर्थयात्री वगैरह तीर्थयात्रा, तप-साधना या हिमालया्क दर्शनोंक लिजी देवभूमि उत्तराखण्ड में आते रूँछी और कुछ याँकै मन्दिरों या देवस्थानों मंे बसि जाँछी। साथै उत्तराखण्डा्क लोग लै घुमणकि तैं, तीर्थयात्रा या मन्दिरोंक दर्शनोंक लिजी दक्षिण भारतकि यात्रा पर जाते रूँछी। ये किस्मलि द्विए तरफ बटिक आवाजाही मंे बोलि-भाषाक लै आदान-प्रदान होते रूँछी।
ये प्रकार कै सकनू कि कुमाउँनी भाषाक लगभग डेढ़-द्वि हजार वर्षोंक लम्ब इतिहास छु। आज जबकि चैतरफ हिंदी और अंग्रेजिक बोलबाला है रौ, फिर लगै कुमाऊँक को गौं यस छु जाँ कुमाउँनी न बोली जानि? शहरांेकि बात छोड़ो, किलैकी वाँ बार जा्गाँ बै आयी, बार जातिक लोग रूनी और उनुकैं आपस में सम्पर्क करणकि लिजी हिंदी बुलाण पडैं़। एक सर्वेक्षणा्क अनुसार कुमाऊँ में कुमाउँनी बोलनेरोंकि संख्या लगभग पच्चीस लाख छु , जबकि वीकैं समझनेरोंकि संख्या येहै डेढ़ गुना बाँकि तब लै होलि। जब तक कुमाऊँ में बसासत रौलि, गौं-गाड़ रौल,  जिमदार और काश्तकार रौल, तब तक कुमाउँनी लै रौलि। ये बात मंे कै कैं क्वे किसमकि शंका नि हुण चैन।
यो सवाल पुछी जै सकीं कि आजा्क दिन लोगों कैं कुमाउँनी किलै पढ़न-लेखण चैं? जब औपचारिक शिक्षाक माध्यम हिंदी-अंगे्रजी छु तो फिर कुमाउँनी पढ़न-लेखणकि कि जरवत छु? वीलि कि फैद ह्वल? वीकैं पढ़ि बेर कती नौकरी जै के मिलण लागि रै? को पुछणौ कुमाउँनी कैं? क्वे यस साहित्य लै वीमें लेखी न्हैंतन कि जैक आकर्षणलि वीकैं पढ़ी जाऔ? यस कई जाँ कि जब हिंदी में साहित्य लेखणकि शुरूआत हुणै लागि रैछि और अंग्रेजी पढ़ी-लेखी लोग हिंदी कैं हिकारतकि नजरलि देखछी, तब देवकीनंदन खत्रिक उपन्यास ‘चंद्रकान्ता सन्तति’ कैं पढ़नकि तैं हिन्दी न जा्णनेर भौत लोगांेलि हिंदी सिखैछि, किलैकी उ भौतै रोचक और लोकप्रिय उपन्यास छी और वीक दुसरि भाषाओं में अनुवाद लै न छी। जो लोग ये किसमा्क सवाल करनी, उ न आपणि जा्ग में ठीक है सकनी, लेकिन उनुथैं म्यर लै एक सवाल छु कि जब हमा्र इज-बा्ब  बुड़ी जानी और उन के काम न करि सकन, तो तब लै हम उनू कैं पैंलियक जस सम्मान दिनू और दुख-तकलीफ में जाँ तक है सकैं, उनरि सेवा-टहल करनू। उनर महत्व हमरि लिजी उनरि उपयोगिताक आधार पर नि हैबेर, उन भावनाओंकि आधार पर हुँछ, जैलि हम उनू दगड़ि जुड़ी हुनू। जसिक एक बच्चक आपणि मै दगड़ि ‘नवबिणिक’ और ‘दूद-पूतक’ संबंध हुँ छ। मैं-बाब हमरि जड़ छन, जना्र बिना हम अस्तित्व में नि ऐ सकना। मातृभाषा ;दुदबोलिद्ध दगड़ि लै हमर उई ‘नवबिणिक’ संबंध हुँछ।
कुमाउँनी हमरि दुदबोलि ;मातृभाषाद्ध छु। दुदबोलिक मतलब छु- उ बोलि-भाषा जैकैं एक बच्च आपणि मैथैं बै दूदकि घुटुक में सिखों। उ बोलि-भा्ष में मैक दूद और संस्कार घुली-मिली हुनी। जैमें आ्म-बुबुकि हुलारि, इजकि ‘इजा-पोथी’ और बाबुकि ‘घुघुती-बासुती’ पैंल बखत भौक कानों में पड़ैं। ये लिजी दुदबोलि हमा्र खून में घुली-मिली हुँछि। मनखी ज्यूनि में ‘मैक’ सबूँहै पैंल और ठुल स्थान छु, किलैकी उ जनम दिंछि। यहै अलावा मैक नाम तीन हौर चीजों दगड़ि लै जुड़ी छु,- ‘मातृभाषा, मातृभूमि और गौमाता’। इनूकैं हम, - दुदबोलि, मैं-माटि ;जनमभूमिद्ध और गाई माई लै कूनू।
ये प्रकार हमा्र जीवन में जो जा्ग हमरि मैकि छु, उई जा्ग हमरि दुदबोलि ;मातृभाषाद्ध और जनमभूमिक लै छु। आपणि मै थैं ‘इजा’ कूण में जो भावात्मक लगाव, निश्छल प्रेम और श्र(ा भाव झलकँछ, उ माँ/माता/मम्मी/मौम वगैरह कूण में नि ऐ सकन। जसिक ‘नरै’ और ‘निश्वास’ शब्दोंक लिजी दुसरि भाषा में ठीक उसै भाव दिनेर शब्द न्हैंतन, उसी कै ‘इजा’  शब्दक लै क्वे दुसर जोड़ न्हैंतन। कुमाउँनी में लै हम ‘इजा’ कैं मै या मातरि कूनू, पर जब ‘इज’ कैं आवाज दिण हुँछि तो- ‘ओ मै’! या ‘ओ मातरि’! न कूना, वरन् ‘ओ इजा’! कुनू। क्वे दुसर हमूथैं पुछि सकैं कि ‘तेरि मै काँ जै रै’? या ‘वीकि मातरि घा काटण हैं जै रै’, या ‘तेरि इज कि करणै’? पर जब इज कैं धाद लगूण हुँछि, या कती ठोकर लागैं, या क्वे दुख-तकलीफ हुँछि, तो मुख बटि आफी-आफी निकलि ऊँछ, - ‘ओ इजा’!
‘इज’ या ‘इजा’ शब्द हमा्र दिल में बसी छु। वीमें हमरि आत्माक रस घुली छु। यसीकै कुमाउँनी भाषाक लै हमरि लिजी उई महत्व छु, जो हमरि इजकि ‘दुदकि धार’ और ‘मै-माटिक’ छु। आदिमि़ रूजगारा्क लिजी चाहे दुनिया्क क्वे कूण में न्है जावौ या बसि जाऔ, पर मै-माटिक प्यार और लगाव ताजिन्दगी रूँछ। वीकि नरै और निश्वास मन में हमेशा बेचैनी पैद करँछ। उसै प्यार और लगाव आपणि ‘दुदबोलिक’ तैं लै हुँछ। यो जरूर छु कि हर क्वे भाषा आपस में संवाद या विचारोंक आदान-प्रदानक माध्यम हुँछि। हम कै दगड़ि लै हिंदी-अंग्रेजी या हौर क्वे भाषा में बातचीत करि सकनू, लेकिन आपणि दुदबोलि में बात करणक कुछ औरै स्वाद हुँछ। येमें एक किस्मक अपणयांटक भाव हुँछ। वीमें बात करण में कुछ और स्वाद ऊँछ, जसिक इजा्क हाता्क बणाई खा्ण में ऊँछ। कुमाउँनी में जब हम बात करनू तो यस लागँछ कि जसिक हम क्वे पहाड़ि खा्ण खा्ण लागि रयाँ, जैमें सालिक चावलोेंक भात, मासकि दुड़बुड़ि दाव, आलुक गुटुक, पिनाउक गटबटान शाग, मासाक रोट, बड़, छँसी भटक चुड़काणि, गहतकि दाव, काकुनिक र्वाट, मडुवाक र्वाट, हरी धणियक लूण, भटा्क डुबुक, पुरि-बाबर, छोली, रस-भात, खीर वगैरह न जाने कतुक परगारा्क व्यंजन बणी छन। 
दुदबोलि में आपण समाज-संस्कृति-लोक साहित्य और इतिहास घुली-मिनी हुँछ। हमर कुमाउँनी लोक साहित्य कुमाउँनी भाषा में आपणि पुरि चेतनाक साथ ज्यून रै सकैं । दुसरि भा्ष में वीक केवल अनुवादै है सकैं, परन्तु अनुवाद ‘मूल’ न है सकन। अनुवाद लै सबै शब्दोंक न है सकन। मडू-मादिर-कौणि या गीद-बैर- झ्वा्ड़-रमौल-भगनौल-जागर-घणेलि या हरू-सैम-भुमी-ग्वल्ल-भनरी- मसाण वगैरह शब्दोंक कि अनुवाद है सकैं? हमरि लोकसंस्कृति, रीति-रिवाज, खान-पान, आचार-विचार, रहन-सहन, सब कुछ हमरि दुदबोलि कुमाउकृँनी में ज्यून रै सकनी। अगर हमरि कुमाउँनी भाषा न रौलि तो हमर लोक साहित्य और लोक संस्कृति लै न बचै, जो हमरि पछ्याण छु। को न चाल कि वीक पछ्याण बणी रवो?
पुरि दुनी में ढाई-तीन हजार बोलि-भाषा छन। सबै आपणि-संस्कृति बोलि-भा्षों कैं बचूण-छजूण में लागि रई। हमा्र देश में आज हिंदी-अंगे्रजिकि जो आँधी चलि रै, वीमें हर क्वे राज्य आपणि बोलि-भा्ष कैं बचूणकि कोशिश में लागि रौ। राज्यों में अलग भाषा-संस्कृति विभाग योई लिजी बणि रईं कि उन आपणि भाषा-संस्कृति और लोक साहित्य कैं बचै सकूँ। ‘थ्वाड़ कूण, भौत समझण’। आ्ब सबूँकि समझ में यो बात ऐ जा्ण चैं कि हमूलि आपणि दुदबोलि ;मातृभाषाद्ध कुमाउँनी कै बचूण छु। यो द्वि किस्मलि बचि सकैं,- पैंल यो कि हम येमें खूब साहित्य सृजन करौं। साहित्यकि जतुक लै विधा छन, या है सकनी, उनूमें लेखणकि तैं हमूलि लेखक तैयार करण चैनी, उनुकैं प्रोत्साहन दिण चैं और उनर हर प्रकारलि उत्साह बङून चैं, दुसर हम कुमाउँनी साहित्य कैं खुद लै पढ़ौं और हौरौं कैं लै पढ़नकि तैं प्रेरित करौं, तबै क्वे सार्थक पहल है सकैं। एक साथ-साथै हमूंल वीक साहित्यिक स्तर लै बढून चैं। अगर कुमाउँनी भाषा मंे उच्च स्तरीय साहित्य नि लेखी जा्लौ तो उ ज्यादा दिन तक जिन्द न रै सकौ, यो बात कैं हमूलि गाँ्ठ पाड़ि ल्हिण चैं।
मैं साहित्यिक स्तरा्क संबंध में एक बात बतूण चाँछौं कि पहाड़ि लोग अवधी या ब्रज बोलि-भा्ष कैं न जा्णन और न जा्णन चान। लेकिन भगवान राम और कृष्णा्क बा्र में जा्णन-सुणनकि लिजी सबूँकैं तुलसीदास ज्यूक ‘रामचरितमानस’ और सूरदास ज्यूक ‘सूरसागर’ पढ़न-सुणन पडैं़। बिना उई काम न चलि सकन। सा्र पहाड़ में जा्ग-जा्गन में ‘रामलीला’ हुनी और उन रामलिलों में रामचरितमानसक संक्षेप में नाट्य-रूपान्तर दिखाई जाँ, जो अवधी भाषा में लेखी छु। हम उसै या वीहै लै भल ‘रामलीला नाटक’ कुमाउँनी भाषा में लै लेखि सकनू, जो जनता द्वारा और लै ज्यादा पसंद करी जै सकीं। यसीकै ‘कृष्णलीला नाटक’ लै लेखी जै सकीं। बस कलम उठूणकि जरूरत छु। आपणि बोलि-भा्ष में को चीज भलि न लागनि? कुछेक ये किस्मा्क नाटक लेखी लै गई, लेकिन उन तुलसीदास ज्यूक स्थान न ल्हि सक। जब महाकवि तुलसीदास, सूरदास या कबीरदास ज्यु आपणि बोलि-भा्ष में लेखी साहित्य कैं पढ़ना्क लिजी हमूकैं मजबूर करि सकनी, तो हमू में लै क्वे यस प्रतिभावान साहित्यकार जनमि सकैं, जो कुमाउँनी भाषा-साहित्य कैं अवधी, ब्रज या खड़ीबोली, हिंदिक तुलना में ठा्ड़ करि सकैं। येक लिजी कठोर तप-साधना करन पड़लि, तभै यो असंभव काम संभव है सकैं, नतरि हम गाड़-गधेरूवै रै जँूल और हमा्र छ्वा्ट-म्वा्ट प्रयास ‘ऊँटा्क मुख में जिरकि फाँक’ जा्स सि( ह्वा्ल और पूसा्क पालङ जा्स थ्वा्ड़ै दिनों में वेलै जा्ल।
हिंदिकि 17 मुख्य बोलि छ न। उनुमें लै सबूँहै श्रेष्ठ साहित्य ब्रज और अवधी बोलि-भा्ष में लेखी छु। कुमाउँनी बोलि-भा्ष ब्रज और अवधी है के मामिल में कमतर न्हैंतन। कालि कुमूकि बोलि ‘कुमय्याँ’ में तो येतुक मिठास छु कि वीमें क्वे गालि लै दिंछो तो उ लै मिठि लागैं। ‘कुमय्याँ’ बोलि कैं कुमाउँनिकि ‘ब्रज भाषा’ कई जाँ, किलैकी ब्रजभाषा में लै उसी मिठास छु। खसपर्जिया में थ्वा्ड़-भौत खड़खड़पन छु, लेकिन श्रेष्ठ साहित्य सृजन द्वारा वीमें मिठास लायी जै सकीं। खड़ीबोली लै बुलाण में खड़खड़ छु। लेकिन छायावादी कवियोंलि आपण साहित्य सृजन द्वारा वीमें येसि मिठास भरि दे कि उ ‘कोमल कान्त पदावली’ बणि गै। यो ताकत साहित्यकार में हुँछि कि उ भाषाक रूप लै बदलि सकैं। ये लिजी जरूरी छु कि जो लोग आपणि दुदबोलि कुमाउँनी कैं प्यार करनी और उच्चकोटिक साहित्य लेखि सकनी, उनूलि पद्य और गद्य द्विए विधाओं में लेखण चैं। लेखन-लेखनै अभ्यास है जाँ और फिर के कठिन न ला्गन, लेकिन काव्य प्रतिभाक हुण जरूरी छु, बिना उई क्वे बात नि बणौ।
आपण समाज-संस्कृतिक जतुक भल चित्रण हम आपणि बोलि-भा्ष में करि सकनू, उतुक दुसरि बोलि-भा्ष में न कर सकना, किलैकी आपणि बोेलि-भा्षकि सार-पतार और जानकारी हमुकैं बचपनै बै ऐ जैं, जबकि दुसरि भाषा कैं औपचारिक रूप में सिखण पड़ौं और वीमें उ बात न ऐ सकनि। कतुक बखत यसि दिखत ऐ जैॅं कि जो हम कूण चानौ, वीक तैं सटीक शब्द न मिलन।
अंत में योई कूण चाँ कि जिंदगी में सबै काम स्वारथै पर आधारित न हुन। आदिमि कैं आपण स्वाभिमान, सम्मान और पछ्याण बणून-बचूणकि तैं कुछ त्याग लै करण पड़ैं और कभै-कभै नुकसान लै उठूण पड़ैं। हमूकैं आपणि कुमाउँनी भाषा पर गर्व हुण चैं। क्वे लै भाषा या बोलि नानि-ठुलि न हुनि, वरन् वीकैं बोलनेर लोग नानि-ठुलि बणूनी। आजि लै बखत छु कि हम आपणि भा्ष कुमाउँनी कैं राष्ट्रीय स्तर पर मान-सम्मान और पछ्याण देऊणकि तैं जी-ज्यान लगै बेर प्रयास करूँ और वीमें श्रेष्ठ साहित्य लेखणक कोशिश करौं। • 

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Khabarpat.online ने कहा…
भल लागि जानकारी 🙏🌿

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