हमर घटक सुधारक काम करी गो बरसों बाद

लाके भर के कई गांवों के घटवार अनाज ( गेहूं, मडुवा आदि) पिसने के लिए मुंह अंधेरे ही 8-10 किलोमीटर पहाड़ी रास्ता नापकर घट (घराट/पनचक्की) पहुंच जाते। महीनों के कोटे के लिए अनाज इतना ज्यादा लाते कि दिन भर में घट पीस ही न सके। घटवारों को रात भी घट के अंदर ही काटनी पड़ती। कुछ सब्जी, मसाले व बर्तन मांगने हमारे घर आ जाया करते। रोटी घट के पिसे आटे से बनाते थे। रातभर भी घट अनाज पीसता रहता। घटवारों की दूसरे-तिसरे दिन घर वापसी होती थी। पिसाई के बदले घराट के स्वामी के लिए थोड़ा सा आटा (भाग)  रख जाते। 
         हमारी पांचवी पीढ़ी भी इसी घट (पनचक्की) का आटा खा रही है। बूबू के बूबू के जमाने से हमारा यह घट उपयोग में आ रहा है। घराट को उपयोग लायक बनाए रखना बहुत मेहनत का कार्य है।  यद्यपि घट में सुधार का काम महीने दर महीने होते रहता पर घट के जीर्णोद्धार किए करीब 15 वर्ष बीत चुके थे। सोचता था की इलाके भर की अन्य घटों की तरह इसके भी खंडहर ही शेष न बचे रह जाए। कुछ ही वर्षों पूर्व गांव में सड़क बनते वक्त मलवे से घट की बान (नदी से घट तक पानी लाने वाली नहर) मलवे से पट गई थी। महिनों तक अनाज पिसाई का काम ठप रहा। पत्थरों से आच्छादित छत तेजी से जर्जर होती जा रही थी। लकड़ी के उपकरण कमजोर हो रहे थे। सौंदर्यीकरण के लिए सुना था सरकारी मदद भी मिलती है।  'उरेडा' में संपर्क भी किया पर कुछ मदद हाथ न लगी। हाल ही में कुछ दिनों के लिए गांव गया तो काका- ज्याबा लोगों ने घराट के जीर्णोद्धार की योजना बनाई थी। खुशी का ठिकाना न रहा। बहुत कम खर्चे में यह काम पूरा हो सका। गांव के लोगों ने इस काम को अपना समझकर ही किया क्योंकि घट का मालिक एक हो पर होता तो वह सार्वजनिक ही है। दुख इस बात क भी है कि घट के उपकरण बनाने वाले कारीगर इलाके भर में गिने -चुने रह गए हैं। 

          पढ़ा है कि 1842 ई. बैकेट समझौते के दौरान अंग्रेजों द्वारा कर हेतु घराटों की गणना की गई थी। तब मौसमी घराटों पर एक रूपया और वर्षभर चलने वाले घराटों पर दो रूपया कर निर्धारित किया गया था। धर्मार्थ ( बिना पिसाई दिए अनाज पीसने वाले घट) घराटों पर कोई कर नहीं लगया गया। एटकिंसन ने लिखा है कि 1880 ई. में गंगोली परगने में 125 घट थे जिनका राजस्व 125 रूपया था।  शेडयूल्ड डिस्ट्रिक्ट एक्ट 1874 के तहत 'कुमाऊं वाटर रूल्स 1917 ' बनाकर अंग्रेजों ने पानी पर हस्तक्षेप की प्रक्रिया को अधिक कड़ा किया। नियम थे की घराटों और सिंचाई नहरों के निर्माण के लिए स्थानीय राजस्व अधिकारियों की अनुमति जरूरी होगी। पीने योग्य जल के अलावा सिंचाई और घराट का पानी सरकार के नियंत्रण में लाया जाए। सिंचाई और घट के निर्माण के लिए अधिकारियों की अनुमति जरूरी थी। कलक्टर को भी घराट को लेकर कई अधिकार दिए गए थे। बाद में ' कुमाऊं वाटर रूल्स 1970 को संसोधित करके घराट और गूल को अलग-अलग दर्जा दे दिया गया। । 
       जब से बिजली चालित चक्की का प्रचलन बढ़ा है घटों का भविष्य खतरे में है। घटवार बहुत कम आते हैं। मानो जैसे घराटों को अब कोई मुंह नहीं लगाता। शायद ही पहाड़ की इस पौराणिक विरासत को अब कोई संरक्षित करनी की ओर दिमाग लगाता है। हमारे गांव की तरह दूर इलाकों में बसे पहाड़वासी अब भी घराट पर आश्रित हैं। गांव हमारा बागेश्वर जिले के लाहुर घाटी में पहाड़ों के बीच बसा है।  पर्यटक स्थल बैजनाथ से गरूड़ से करीब 25 किलोमीटर अंदर है। नाम है -सिरानी ( सलखनायारी)। 
      घराट का जीर्णोद्धार का काम 03 जुलाई 2021 को किया गया। हमारे इस काम को अखबार पत्रों व न्यूज वेबसाइड़ों ने भी स्थान दिया है। उनके इस सहयोग के लिए बहुत आभार । 

●https://www.samvaad365.com/uttarakhand/bageshwar-villagers-renovated-gharat-the-mythical-heritage-of-the-mountain/

● https://uttranews.com/latest/villagers-renovated-gharat-in-garur-bageshwar/cid3486514.htm

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