किताब समीक्षा - नई कलमाक नौं आँखर : जो य गङ बगि रै
कुमाउनी भाषा में करीब द्वी सौ सालन बै पद्य साहित्य लेखी-रची जाण लागि रौ। कुमाउनी में संजैत कबिता संकलन परकाशनकि परंपरा 1969 ई.में ‘शिखरों के स्वर’ बै शुरू है बेर अघिल बढ़ै। योई परंपरा कैं भली भैन अघिल बढूनक काम करैं ‘जो य गङ बगि रै’ संजैत किताब।
युवा कबि और लेखवार ललित तुलेरा क संपादन में यो एक संजैत कबिता संकलन छु और यैकि सबन है ठुलि खासियत य छु कि यैमें कलम चलौणी सबै लेखवार युवा छन और पनर बै पच्चीस (15- 25) उमराक छन। यो किताब में अड़सठि कुमाउनी कबिता शामिल छन, जनन में लेखवारोंल पहाड़, पलायन, शराब, बिकास, स्यैणियोंक संघर्ष जास बिषयनाक दगड़ इज, गौं, पर्यावरण, चैमासाक चित्र लै खैंच राखी।
जां एक तरफ यो कबिता नई जोशल भरी हुई छन, वांई इनन में युवा लेखवारोंक सौंदर्य बोध और सामाजिक सरोकारों चेतना लै देखण में ऐं। कुमाऊंक चार जिल्लों बै यो संकलन में शामिल सतर (17) लेखवारों में आठ कबित्री- भारती जोशी, गायत्री पैंतोला, हिमानी डसीला, कविता फर्त्याल, ममता रावत, भावना जुकरिया, पूजा रजवार, ज्योति भट्ट और नौ कबि- भास्कर भौर्याल, प्रदीप चंद्र आर्या, दीपक सिंह भाकुनी, मनोज सोराड़ी, रोहित जोशी, कमल किशोर कांडपाल, प्रकाश पांडे ‘पप्पू पहाड़ी’, पीयूष धामी और ललित तुलेरा शामिल छन। किताब में लेखवारोंक नाम, पत्त और मुबाइल नंबर लै दी राखौ जो पढ़नेरों लिजी उपयोगी हो्ल।
यो संकलनकि ठुलि बात यो छू कि यो नई पीढ़ी रचनाकारों कैं मंच दिणा दगड़ै उनरि रचनात्मकता कैं लोगनाक सामणि ल्यूणौ काम सफलतापूर्वक करूं। संकलनक आकर्षक मुखड़ कैं तैयार करण में संपादक ललित तुलेरा ल खूब मेहनत कर राखी। यो संकलनकि सारगर्भित भूमिका डाॅ. पवनेश ठकुराठी ल लेखि राखी, यो पढ़नेरन कैं संकलनकि एक झलक दिखौं।
•••
('पहरू' कुमाउनी पत्रिका, अगस्त २०२१ अंक बै साभार)
टिप्पणियाँ