डाकघट का संक्षिप्त इतिहास ( A Brief History of DANKGHAT)- ललित तुलेरा Lalit Tulera
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उत्तराखंड में कई घाटियां और स्थान ऐसे भी हैं जिनका महत्त्वपूर्ण इतिहास रहा है और वे मुख्य धारा में शामिल न हो पाने के कारण अब तक प्रकाश में नहीं आ पाए हैं। ये ऐसे स्थान हैं जो आजादी के कई दशकों बाद भी सड़क, संचार, स्वास्थ्य आदि मूलभूत सुविधाओं से वंचित रहे हैं। ऐसा ही एक स्थान है डाकघट।
कुमाऊं मंडल स्थित बागेश्वर जिला मुख्यालय से लगभग 50 किलोमीटर व गरूड़ ब्लॉक मुख्यालय से लगभग 25 किलोमीटर सुदूर लाहुर घाटी में एक छोटा व्यावसायिक केन्द्र है- डाकघट। लाहुर नदी के किनारे बसा यह एक छोटी बाजार है। इसका स्थानीय कुमाउनी भाषा में मूल नाम 'डाङघट' है। यह नाम 'डाङ' और 'घट' दो शब्दों से मिलकर बना है। 'डाङ' शब्द कुमाउनी का है जिसका अर्थ है विशाल चट्टान, और 'घट' शब्द का उपयोग कुमाउनी में घराट या पनचक्की के लिए होता है। इस तरह 'डाङघट' नामकरण विशाल चट्टान और घराट दोनों की मौजूदगी की वजह से रखा हुआ मालूम पड़ता है, क्योंकि यहां घट और विशाल चट्टान हैं। 'डाङघट' का हिंदीकरण करके इसे 'डाकघट' के नाम से भी जाना जाता है।
डाकघट सन 1970 के दौर में एक व्यावसायिक केन्द्र के रूप में स्थापित हो चुका था। घाटी के लोगों के लिए दैनिक जरूरत की हर सामग्री यहां मिलने लग गई थी। त्योहारों के समय यहां खूब रौनक रहती थी।
● डाकघट में पहली दुकान-
डाकघट में पहली दुकान लगभग सन् 1950-55 से शुरू हुई। चौरसौं (वज्यूला) का मूल निवासी हयात राम ने डाकघट में गुड़, नमक, तंबाकू आदि सामान की एक छोटी दुकान खोली। हयात राम डाकघट के पास ही लुकीट नामक स्थान में अपने रिश्तेदार के यहां रहता था और मवेशियों की देखभाल करता था। इससे पहले घाटी के लोग डंगोली, गरुड़, रानीखेत, अल्मोड़ा से नमक आदि दैनिक जरूरत का सामान कई दिनों के पैदल मार्ग तय करके लाते थे। धीरे-धीरे यहां कुछ अन्य दुकानदार मोहन सिंह (ग्राम-सिरानी), बलवंत सिंह (ग्राम- सिरानी) आलम सिंह (ग्राम-सिमगड़ी), पदमा दत्त जोशी आदि ने भी किराने की दुकानें शुरू कर दीं थीं। यहां गोपाल राम, जीत राम (जखेड़ा), गोविंद राम ने कपड़े सिलने का व्यवसाय शुरू कर दिया था। उस दौर में कुछ दर्जी कपड़े सिलने के बदले अनाज लेते थे। ये दर्जी स्थानीय कुमाउनी भाषा में 'खई' कहलाते थे। आज यहां कई दुकानें हैं।
डाकघट से कुछ दूरी पर स्थित जखेडा बैंड तक सड़क कुछ दशक पूर्व आ गई थी परंतु डाकघट तक सड़क नहीं बनी थी। एक दशक पूर्व डाकघट सड़क से जुड़ चुका है परंतु अब भी संचार की सुविधाएं अच्छी नहीं हैं।
● व्यापारियों का पड़ाव -
कुमाऊं और गढ़वाल के सीमांत इलाके में स्थित होने से व्यापारियों हेतु यह स्थान रात्रि पड़ाव के लिए उपयोगी था। दरअसल उस दौर में कुमाऊं (तत्कालीन अल्मोड़ा जिला, अब 1997 ई. में अल्मोड़ा से बागेश्वर जिले का गठन हो चुका है। ) और गढवाल में चमोली जिले के व्यापारियों के बीच अनाज का व्यापार होता था। डाकघट के दुकानों के लिए दैनिक जरूरत का सामान डंगोली और गरुड़ के दुकानों से घोड़ों में लाया जाता था।
चमोली जिले में पिंडर नदी के पार के गांवों खेती, मातमाती, धार आदि से बकरियों के पीठ में आलू लादकर लाया जाता था और कत्यूर घाटी के कई गांवों और गरुड़, डंगोली के दुकानों में आदान- प्रदान होता था। आलू के बदले वे अनाज ले जाते थे। बकरियों के समूह में १०० -१५० बकरियां होती थीं। उनके पीठ में दोनों ओर पोटलीनुमा जेबें होती थीं, स्थानीय भाषा में उनका नाम 'करब्वाज' था। एक बकरी के पीठ में करीब 5 किलो सामान लादा जाता था। बकरियों के ग्रुप को 'ढाकर' कहा जाता था। रात्रि विश्राम के लिए उनके कई पड़ाव थे, जिंतोली स्थित बली बूबू मंदिर के मैदान (बगड़) में भी एक पड़ाव था, डाकघट के पास ही स्थित 'बिरखमू उडयार' में भी एक पड़ाव हुआ करता था। अब सड़क बनने से 'बिरखमू उडयार' नष्ट हो चुका है। एक पड़ाव भगदानू गांव में भी था। 1990 ई. के बाद भूमंडलीरण के दौर में घाटी में इस तरह का व्यापार खत्म हो चुका है।
● एक दर्जन से अधिक गांवों का बाजार-
हड़ाप, दाबू, सलगड़ा, सिमगढ़ी, लमचूला, सिरानी, सलखन्यारी, पौंसारी, सुराग, लमचूला, जखेड़ा, गनीगांव, जखेड़ा आदि गॉंवों के लोग डाकघट सामान खरीदने आते थे। यहां उस दौर में डाक के लिए एक लैटर बॉक्स भी लगा था। पोस्ट ऑफिस जखेड़ा गांव में था। समय के साथ यहां अन्य कई जरूरतों की दुकानें खुलने लगीं, जिनमें सब्जी, चाय की दुकान, कपड़े की दुकान, इलैक्ट्रिक, निजी क्लिनिक आदि हैं।
डाकघट से कुछ दूरी पर जखेड़ा गांव का एक तोक 'मड़की' के मोहन राम भी यहीं दर्जी का काम करते हैं। वे अभी यहां सबसे पुराने दर्जी और अपनी उम्र के दुकानदारों में एकमात्र दुकानदार हैं। उन्होंने अपनी प्राथमिक शिक्षा अपने गांव जखेड़ा से ही प्राप्त की। गरीबी और स्कूल दूर होने कारण कक्षा सातवीं तक ही पढ़ाई कर पाए। अपने करियर के लिए उन्होंने सिलाई को चुना। मोहन राम को लोग 'मोहन टेलर' के नाम से जानते हैं। 74 वर्ष के मोहन राम पिछले लगभग 54 सालों से कपड़े सिलते हैं। गोपाल राम, जीत राम (जखेड़ा), गोविंद राम आदि दर्जियों के साथ मोहन टेलर भी युवा अवस्था से कपड़े सिलने के व्यवसाय से जुड़ गए।
( मोहन टेलर अपने दुकान में )
घाटी के लोगों के लिए डाकघट अपने अधिकारों के लिए धरना/आंदोलन का केन्द्र भी रहा है। यहां घाटी के लोगों ने शिक्षा, स्वास्थ्य, सड़क आदि मांगों के लिए धरना प्रदर्शन व आंदोलन भी किए हैं। इस वर्ष अपने मांगों को लेकर हुए धरना की 'दैनिक जागरण' दैनिक समाचार पत्र में छपी खबर-
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